Sunday, April 5, 2015

हम अपशकुनी ख़त










       हम अपशकुनी ख़त 
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         शोषण के हाथों 
         हम हैं सिर्फ़ खिलौने। 

         जितनी चाबी दी 
         उतना ही हम डोले ,
         जो भरा गया था 
         हम में 
         वह ही बोले ;

         क्या अपना ?
         अपने लिए भले 
         हम हों चाँदी या सोने ।  

         यों तो हममें हैं 
         हाड़ -मांस औ ' साँसें ,
         पर फुरसत किन्हें 
         जो 
         हममें मनुज तलाशें ;

         हम उनके लिए 
         घिनौने जूठे दौने । 
         खुद हम अपशकुनी ख़त ,
         जिनके कि फटे कोने । 

                              - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल ''  ,  पृष्ठ - 27












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shrikrishnasharma.wordpress.com

8 comments:

  1. हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार (07-04-2015) को "पब्लिक स्कूलों में क्रंदन करती हिन्दी" { चर्चा - 1940 } पर भी होगी!
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    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. धन्यवाद मयंक जी |

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  3. कटु सत्य
    हम खुद अपने अपशकुनी खत.

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  4. धन्यवाद सु - मन जी |

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  5. धन्यवाद मन के - मनके जी |

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  6. धन्यवाद मन के - मनके जी |

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