यों मत दौड़ो !
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यों मत दौड़ो
गिर जाओगे ,
गिरे अगर तो पीछे आते
पॉंवों - तले कुचले जाओगे !
कीचड़ में
धरती लथपथ है ,
पता न फँसे
कहाँ पर रथ है ;
सँभले अगर न ,
कर्ण - सरीखे
समर - मध्य मारे जाओगे !
षड्यंत्रों में
चक्रव्यूह हैं ,
कृत्या
अभिशापित रूह हैं ;
चेतो ,
इस महफूज़ तख़्त को
' तख़्ता ' तुम्हीं बना पाओगे !
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 29
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