अपनी कहानी
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अपनी तो मीता रे ,
बस यही कहानी !
पत्थर के कोयलों के
धूएँ से भरी रही ,
सुबह - शाम घुटती रही
शापित ज़िन्दगानी !
कोल्हू के बैलों पर
जुए - सी धरी रही ,
दिन औ ' रात छाती पर
चिन्ता की धानी !
बचपन में लगी चोट
जीवन - भर हरी रही ,
पर न दिखी ऊपर
उस चोट की निशानी !
सुख का तिनका भी जब
बचा न तो डरी रही ,
स्वप्न तक में कच के लिए
व्यथित देवयानी !
अघटित भी घटित देख
मरी - सी पड़ी रहीं ,
हृदयघात - पीड़ित ये
साँसें शाहजहाँनी !
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 50
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