बाजों की दहशत में
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हाथों में
नोकीले पत्थर लिये हुए ,
अन्धी - तंग सुरंग ,
होंठ सब सींये हुए ।
साँसों विष है ,
विषधर पाले जैसे - जी ,
लाक्षागृह की
आग रही है मन में जी ;
शापग्रस्त घाटी में
सब पग दिये हुए ।
आग , ख़ून ,
चीखें हैं औ ' चिल्लाहट है ,
गूँज रही
आदमख़ोर गुर्राहट है ;
बाज़ों की दहशत में
चिड़िया जिये हुए ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 46
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