होरी - सा बुझा हुआ बैठा
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भीड़ में मिले थे हम दोनों ,
कह सके नहीं जो था कहना !
फिर एक बार जो बिछुड़े तो ,
खो गया कहीं मन का लहना !!
फिर दर्द लिये वह बिछुड़न का ,
आधी साँसों से राह चले !
आशाओं के बादल पिघले ,
वेदना - व्यथित अँधियार पले !!
रंगों ने चाहा बहलाना ,
रूपों ने चाहा उलझना !
पर बाबर - जैसा रहा मुझे ,
फिर समरकन्द औ ' फरगाना !!
इच्छाएँ सारी ज़िबह हुई ,
सब सपने भुने कढ़ावोंं में !
होरी - सा बुझा हुआ बैठा ,
तुम बिना ना आग अलावों में !!
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 51
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