Friday, April 24, 2015

होरी - सा बुझा हुआ बैठा










 होरी - सा बुझा हुआ बैठा 
----------------------------

भीड़ में मिले थे हम दोनों ,
कह सके नहीं जो था कहना !
फिर एक बार जो बिछुड़े तो ,
खो गया कहीं मन का लहना !!

फिर दर्द लिये वह बिछुड़न का ,
आधी साँसों से राह चले !
आशाओं के बादल पिघले ,
वेदना - व्यथित अँधियार पले !!

रंगों ने चाहा बहलाना ,
रूपों ने चाहा उलझना !
पर बाबर - जैसा रहा मुझे ,
फिर समरकन्द औ ' फरगाना !!

इच्छाएँ सारी ज़िबह हुई ,
सब सपने भुने कढ़ावोंं में !
होरी - सा बुझा हुआ बैठा ,
तुम बिना ना आग अलावों में !!

                         - श्रीकृष्ण शर्मा 

____________________

पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल ''  ,  पृष्ठ - 51








sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com

No comments:

Post a Comment