नरक जगा आँखों
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सूख चली है नदी नेह की ,
सम्मुख है अब सदी देह की ।
करुणा है कीचड़ में लथपथ ,
संवेदन की टूटी है गत ,
है लंगड़ों के सम्मुख परबत ,
दीवारें गिर रहीं गेह की ,
हुई तेज़ाबी बूँद मेह की ।
भावुकता को लकवा मारा ,
अपनेपन पर चला दुधारा ,
चेतन अब जड़ता से हारा ,
मिटी उर्वरा शक्ति ' लेह ' की ,
माटी तक हो गयी रेह की ।
छल - बल के हाथों विजय - ध्वज ,
लिखा खा रहा काला काग़ज़ ,
क्या पागलपन , क्या अब पद - रज ?
नरक जगा आँखों अदेह की ,
सम्मुख है अब सदी देह की ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 41
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बहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteधन्यवाद कैलाश जी |
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