Thursday, April 16, 2015

नरक जगा आँखों










     नरक जगा आँखों 
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       सूख चली है नदी नेह की ,
       सम्मुख है अब सदी  देह की । 

       करुणा है कीचड़ में लथपथ ,
       संवेदन की टूटी है गत ,
       है लंगड़ों के सम्मुख परबत ,
       दीवारें गिर रहीं  गेह की ,
       हुई तेज़ाबी बूँद मेह की । 

       भावुकता को लकवा मारा ,
       अपनेपन पर चला दुधारा ,
       चेतन अब जड़ता से हारा ,
       मिटी उर्वरा शक्ति ' लेह ' की ,
       माटी तक हो गयी रेह की । 

       छल - बल के हाथों विजय - ध्वज ,
       लिखा खा रहा काला काग़ज़ ,
       क्या पागलपन , क्या अब पद - रज ?
       नरक जगा आँखों अदेह की ,
       सम्मुख है अब सदी देह की ।  

                         - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल ''  ,  पृष्ठ - 41












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2 comments:

  1. बहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति...

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  2. धन्यवाद कैलाश जी |

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