फटी किनार लिये
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आया यहाँ झला पानी का ,
लेकिन डरे - डरे ।
नहा रही गौरेया
- खेतों ,
लोट रहा है गदहा
- रेतों ;
मुरझे हैं चेहरे पातों के ,
जंगल धूल भरे ।
फटी किनार लिए हैं
- हाथों ,
नदी अभागिन है
- बरसातों ;
उफ़ , किस जालिम ने हड़का कर ,
जलधर किये परे ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 30
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