राह में जब बढ़े
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थी सुबह
राह में जब बढ़े ,
हो गयी शाम अब ।
गंध का साथ था ,
धूप का
शीश का हाथ था ;
पंथ में
इन्द्रधनुष थे जड़े ,
गुमे गुलफाम सब ।
दर्द को
धड़कनों में लिये ,
गीत की बस्तियों में जिये ;
शब्द की
अस्मिता को लड़े ,
हुए नाकाम अब ।
बाजियाँ जीतते - हारते ,
तन गलाते
औ ' मन मारते ;
स्वप्न
जितने थे हमने गढ़े ,
हुए गुमनाम अब ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 34
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हर सुबह की शाम तो आती है ... जीवन भी यही क्रम लेता है ...
ReplyDeleteअच्छी गहरी रचना ...
धन्यवाद दिगम्बर जी |
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