छुअन सिहराती नहीं
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मैं यहाँ हूँ
आज
सबसे परे !
छुअन
सिहराती नहीं
मुझको ,
सिसक
बिखराती नहीं
मुझको ;
सहज स्वर
संवेदना के मरे !
हो गया क्या ?
जो हवा चुप है ,
धूप - दिन का मन
तिमिर - घुप है ;
पर तुम्हारे साथ के
वे दृश्य ,
अब कुछ और भी निखरे !
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 54
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