निर्वसन संस्कृति खड़ी
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छलावों के
और धोखों के पड़ावों में ,
रह रहे हैं हम तनावों में ।
लौह
औ ' सीमेन्ट की काया ,
राक्षसी विज्ञापनी माया ,
भोगवादी उत्सवों के शामियाने ,
कोलतारों से भरे
ख़ूनी तलाबों में ।
चेहरे
खोये मुखौटों में ,
निर्वसन संस्कृति खड़ी
घर और कोठों में ;
ज़िन्दगी कुछ के लिए
आस्वाद जिस्मों का ,
और ढोते साँस कुछ
जलते अभावों में ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 28
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