शाम : एक मजदूरिन
------------------------
ईंटों की गर्द
और कोयलों की कालिख में
लिपटी हुई मजदूरिन शाम ।
दिन भर की हाड़ - तोड़
मेहनत से चूर देह
और शिथिल काँधे ,
आँखें निस्तेज और
मन - मन भर बोझिल
पाँव थके - माँदे ;
फिर कल की
चिन्ता में अब से ही
पिटी हुई मजदूरिन शाम ।
गुमसुम औ ' बुझी - बुझी
बैठी है एकाकी
इस सूने वातायन ,
कोलाहल चहल - पहल
बचे नहीं
अब तम के आँगन ;
जीवन की
बेबस लाचारी - सी
मिटी हुई मजदूरिन शाम ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
_________________________
पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 48
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
No comments:
Post a Comment