अपना है बचा क्या ?
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चल रहे हम
दूसरों के पाँव ,
अपना है बचा क्या ?
दृष्टि अपनी
दृश्य औरों के ,
कर रहे हम
गर्व से सब
कथ्य औरों के ,
छोड़ बैठे जो
उन्हीं पर आज़माते
हम उन्हीं के दॉव ,
अपना है बचा क्या ?
प्रश्न हैं
पर नहीं उत्तर हैं ,
बिक रहे जो
जिन्स - जैसे
शीर्ष पर हैं ;
द्वार का जो काट बरगद
तक रहे ललचा
परायी छाँव ,
अपना है बचा क्या ?
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 25
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