मन पठार हुए
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भीड़ है
पर
गीत एकाकी ।
हैं खड़ी बहसें
उठाये हाथ ,
तर्क घेरे हैं
सभी फुटपाथ ;
मंच पर
वक्तव्य बाकी ।
मन पठार हुए
न झरते आह ,
बुझी आँखें
अब न छूतीं दाह ;
निरर्थक
गंध काया की ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 49
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भीड़ है
ReplyDeleteपर
गीत एकाकी ।
...बहुत भावपूर्ण और प्रभावी रचना...
धन्यवाद कैलाश जी |
ReplyDeleteधन्यवाद कैलाश जी |
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