Saturday, April 23, 2016

'' मान का एक दिन '' नामक गीत , कवि श्रीकृष्ण शर्मा के गीत - संग्रह - '' फागुन के हस्ताक्षर '' से लिया गया है -









           मान का एक दिन 
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              मेरे अनबोले का 
              एक बोल गूँज गया ,
              जैसे ये पछुआ 
              मनुहार तुम्हारी ! !

                        मटमैले वर्तमान 
                        ने अपने कन्धों पर 
                        डाली है बीते की 
                        सात रंग की चादर ,

              दुख के इस आँगन में 
              सुधियों के सुख - जैसा 
              सन्ध्या ने बिखराया 
              जाने क्यों ईंगुर ?

                       एकाकीपन में क्यों 
                       लगा और कोई भी 
                       पास ही उपस्थित है ,

              हारे - से मन को 
              कुछ सान्त्वना देती - सी
              खड़क उठी सहसा ही 
              बन्द दुआरी !

                        मेरे अनबोले का 
                        एक बोल गूँज गया ,
                        जैसे ये पछुआ 
                        मनुहार तुम्हारी ! !

              इस फैली पोखर की 
              टूटती लहरियों में 
              टूट -टूट गया 
              खड़ा तट पर जो ताड ,

                        पर जीवन जीने का 
                        आकांक्षी शिखरों पर 
                        चढ़ करके हाँफ रहा 
                       बदरीला साँड़ ;

             दिन भर विलगता की 
             धूप में पके हम - तुम ,

                       गहरे पछ्तावेवश ,
                       इन उदास प्रहारों की 
                       आँखों से एक बूँद 
                       गिर कर बन गयी चाँद ,

             मैं तुम क्या 
             सब स्थित हैं 
             अब उस धरातल पर ,
             जहाँ साम्य -रूपा है 
             आत्मीया  अँधियारी !

                       मेरे अनबोले का 
                       एक बोल गूँज गया ,
                       जैसे ये पछुआ 
                       मनुहार तुम्हारी ! !

                                          - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर ''  , पृष्ठ - 64, 65


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सुनील कुमार शर्मा 

पी . जी . टी . ( इतिहास ) 
पुत्र –  स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय ,
पचपहाड़ , जिला – झालावाड़ , राजस्थान .
पिन कोड – 326512
फोन नम्बर - 9414771867

Tuesday, April 19, 2016

'' समय साँप के खाये - जैसा '' नामक गीत , कवि श्रीकृष्ण शर्मा के गीत - संग्रह - '' फागुन के हस्ताक्षर '' से लिया गया है -









 समय साँप के खाये - जैसा 
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अगहन ठिठुर रहा , पाले ने 
पियरायी है साँझ सिंदूरी । 

       हँसी - खुशी गरमाहट को 
       ठंडक ने गहरे दफनाया ,
       चहल - पहल ही नहीं , सभी को 
       सन्नाटे ने सुन्न बनाया ;

              सूरज अभी - अभी डूबा पर ,
              धूप हुई मृग की कस्तूरी । 

अगहन ठिठुर रहा , पाल ने
पियरायी है साँझ सिंदूरी । 

       कुहरे के मोटे परदे के 
       पार नहीं जाती हैं आँखें ,
       किन्तु टँगी रह गयीं दृस्टि की 
       चौखट पर पेड़ों की शाखें ;

              समय साँप के खाये - जैसा ,
              कैसे कटे रात की दूरी । 
अगहन ठिठुर रहा , पाले ने 
पियारायी हैं साँझ सिंदूरी । 

       सत्याग्रह करती हैं , मन के 
       द्वारे अनागता इच्छाएँ ,
       कब तक अँजुरी भर सपनों से 
       हम अपने अभाव दफनाएं ;
              चढ़ी जिन्दगी के खाते में 
              सिर्फ अँधेरे की मजबूरी । 

अगहन ठिठुर रहा , पाले ने 
पियरायी है साँझ सिंदूरी । 

       लेकिन अब भी तो कोल्हू पर 
       निशि भर खूब जाग होती है ,
       सच है , वहीं  लोग जुड़ते हैं 
       जहाँ कि एक आग होती है ;
              यही आग तो काम करती है 
              मानव से  मानव की दूरी । 

अगहन ठिठुर रहा , पाले ने 
पियरायी है साँझ सिंदूरी । 

                            - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर ''  , पृष्ठ - 57, 58

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सुनील कुमार शर्मा 
पी . जी . टी . ( इतिहास ) 
पुत्र –  स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय ,
पचपहाड़ , जिला – झालावाड़ , राजस्थान .
पिन कोड – 326512
फोन नम्बर - 9414771867

Saturday, April 16, 2016

'' खरीफ़ का गीत '' नामक गीत , कवि श्रीकृष्ण शर्मा के गीत - संग्रह - '' फागुन के हस्ताक्षर '' से लिया गया है -









'' खरीफ़ का गीत ''
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सिर से ऊँचा खड़ा बाजरा , बाँध मुरैठा मका खड़ीं ,
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी। 

       पाँव सरपतों पर घर करके 
       हवा चल रही है सर - सर ,
       केतु फहरते हैं काँसों के 
       बाँस रहे हैं साँसें भर ;

पाँव गड़ाती दूब जा रही , किस प्रीतम के गाँव बढ़ी। 
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी। 

       सींग उगा करके सिंघाड़ा 
       बिरा रह मुँह बैलों का 
       झाड़ और झंखाड़ खड़े हैं 
       राह रोक कर गैलों का ;

पोखर की काँपती सतह पर , बूँदों की सौं थाप पड़ीं। 
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी। 

       घुइयाँ बैठी छिपी भूमि में 
       पातों की ये ढाल लिये ,
       लेकिन अपनी आँखों में है 
       अरहर ढेर सवाल लिये ;

फिर भी सत्यानाशी के मन में , है अनगिन फाँस गड़ीं। 
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी। 

       पके हुए धानों की फैली 
       ये जरतारी साड़ी है ,
       खंडहर की दीवारों पर ये 
       काईदार किनारी है ;

छोटे - बड़े कुकुरमुत्तों ने , पहनी है सिर पर पगड़ी। 
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी। 

       ले करके  आधार पेड़ का 
       खड़ी हुई लंगड़ी बेलें ,
       निरबंसी बंजर के घर में 
       बेटे - ही - बेटे खेलें ,

बरखा क्या आयी , धरती पर वरदानों की लगी झड़ी। 
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी। 


                             - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर ''  , पृष्ठ - 41 , 42

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Wednesday, April 13, 2016

'' सृष्टि - क्रम '' नामक मुक्तक , कवि श्रीकृष्ण शर्मा के मुक्तक - संग्रह - '' चाँद झील में '' से लिया गया है -


( कृपया इसे पढ़ कर अपने विचार अवश्य लिखें | आपके विचारों का स्वागत है| धन्यवाद | )


सुनील कुमार शर्मा 
पी . जी . टी . ( इतिहास ) 
पुत्र –  स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय ,
पचपहाड़ , जिला – झालावाड़ , राजस्थान .
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Saturday, April 9, 2016

'' वर्षान्त के बिन बरसे बादलों को देख कर '' नामक गीत , कवि श्रीकृष्ण शर्मा के गीत संग्रह - '' फागुन के हस्ताक्षर '' से लिया गया है -








वर्षान्त के बिन बरसे बादलों को देखकर 
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घिरे मेघ कल से , अभी तक न बरसे |


        ये ऐसे निढाल औ ' थके - से पड़े हैं ,
        ज्यों आये हों चल करके लम्बे सफ़र से |
                    
      ये निचिन्त थे , इसलिए सुर्खुरू थे ,
       पड़े साँवले किन्तु अब किस फ़िकर से |

       नहीं बूंद तक गाँठ में स्यात् इनके ,
     दिखावा किये हैं मगर किस कदर से |

     गिरा थाल पूजा का कुंकुम , हरिद्रा ,
     अगरु , धूप , अक्षत - गये सब बिखर - से |   

      ये सूखे हुए रेत पर साँप लहरे ,
      लकीरें बनीं , पर हैं ओझल नज़र से |

     नहीं तृप्ति को दी है आशीष इनने ,
     प्रतीक्षित नयन देखकर ये न हरषे |

घिरे मेघ कल से , अभी तक न बरसे |

                                   - श्रीकृष्ण शर्मा 
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पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर ''  , पृष्ठ - 40

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