Monday, November 30, 2015

'' प्रेम बग़ैर '' नामक मुक्तक , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के मुक्तक संग्रह - '' चाँद झील में '' से लिया गया है -



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सुनील कुमार शर्मा  
पुत्र –  स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय ,
पचपहाड़ , जिला – झालावाड़ , राजस्थान .
पिन कोड – 326512
फोन नम्बर - 9414771867

Sunday, November 29, 2015

'' दिल वाले '' नामक मुक्तक , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के मुक्तक संग्रह - '' चाँद झील में '' से लिया गया है -




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Saturday, November 28, 2015

'' धूम - धुआँरे वर्तमान में '' नामक नवगीत , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' अँधेरा बढ़ रहा है '' से लिया गया है -









        चले आ रहे 
        घोड़े दौड़े ,
        जैसे रेसकोर्स हो अम्बर । 
हवा गुदगुदाती आ - आकर 
अलसायी  पोखरिया सिहरी ,
कदमताल कर रहीं ताल में 
लहरें होकर दुहरी - तिहरी ,
        फिसल - फिसल 
        हिमखण्ड आ रहे ,
        लिये हुए सर , सरि या सागर । 

बरखा ने कंघी - चोटी कर 
फैंक दिया गुच्छा बालों का ,
उसे लिये जाता हाथों में 
वह शैतान हवा का झोंका ,
        दृश्य देख 
        गुनगुना उठे हैं ,
        रोमांचित हो जोगी तरुवर । 

नदिया की मांसल बाँहों में 
बाँध कर रेत पिघल कर खोया ,
मेघ परी ने अर्पित कर सब 
ऊसर मध्य हरापन बोया ,
        धूम - धुँआरे 
        वर्तमान में ,
        इन्द्रधनुष के स्वर्णिम अक्षर । 


                             - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' अँधेरा बढ़ रहा है ''  ,  पृष्ठ - 24 , 25

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पुत्र –  स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा ,
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Friday, November 27, 2015

'' सम्बन्ध '' नामक मुक्तक , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के मुक्तक - संग्रह - '' चाँद झील में '' से लिया गया है -



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Thursday, November 26, 2015

'' प्यार के शैदाई '' नामक मुक्तक , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के मुक्तक संग्रह - '' चाँद झील में '' से लिया गया है -




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Wednesday, November 25, 2015

'' तुमने देखा ! '' नामक मुक्तक , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के मुक्तक - संग्रह - '' चाँद झील में '' से लिया गया है -



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Tuesday, November 24, 2015

'' झील रात की ''नामक नवगीत , कवि श्री श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' अँधेरा बढ़ रहा है '' से लिया गया है -









साँझ - सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की ,
भरी हुई है अँधियारे से । 

नीली - नीली लहर नींद की उठतीं - गिरतीं ,
अवचेतन मन की कितनी ही नावें तिरतीं ,
कुण्ठाओं के कमल खिले हैं 
सपनों - जैसे । 
          साँझ - सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की ,
          भरी हुई है अँधियारे से । 

इसी झील के तट पर पेड़ गगन है वट का ,
काला बादल चमगादड़ - सा उल्टा लटका ,
शंख - सीप नक्षत्र रेत में 
हैं पारे - से । 
          साँझ - सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की ,
          भरी हुई है अँधियारे से ।   

नंगी नहा रहीं प्रकाश की लाख बेटियाँ ,
तट पर बैठीं बाथरूम - गायिका झिल्लियाँ ,
खग चीखे -
वह डूब रहा है चाँद ,
बचा लो 
गहरे में से । 
          साँझ - सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की ,
          भरी हुई है अँधियारे से ।     


                                                    - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' अँधेरा बढ़ रहा है ''  ,  पृष्ठ -22 , 23 

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Monday, November 23, 2015

'' ख़त '' नामक नवगीत , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' अँधेरा बढ़ रहा है '' से लिया गया है -









हर ख़त 
जैसे -
दुख का रथ । 

      आँसू 
      हँसती आँखों में ,
      पीड़ा लिये 
      ठहाकों में ,
कम्पित होंठ 
गीत की गत । 
हर ख़त … 

      लकवा मारा 
      सपनों को ,
      तेरहवीं क्या 
      दफ्नों को ,
लेकिन 
इति ही 
अब तो अथ । 
हर ख़त …
                 

                - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' अँधेरा बढ़ रहा है ''  ,  पृष्ठ -  41

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Sunday, November 22, 2015

'' रसीले '' नामक मुक्तक , स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के मुक्तक - संग्रह - '' चाँद झील में '' से लिया गया है -



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Saturday, November 21, 2015

'' तम में कोई नरभक्षी है '' नामक नवगीत , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' अँधेरा बढ़ रहा है '' से लिया गया है -

          यह सूरज है ,
          चित्र - फ़लक तक । 
पेड़ गये 
भीतर बँगलों में ,
सिर्फ़ प्रदूषण है 
कत्लों में । 
          यह है आग 
          कि जिससे बचना ,
          मुश्किल है अब 
उच्च फ़लक तक ।
यह सूरज है … 

शहर नहीं ,
केवल राहें हैं  ,
धुआँ  - धुन्ध है ,
अफवाहें हैं ,
          तम में 
          कोई नरभक्षी है ,
          घूर रहा 
जो हमको अपलक । 
यह सूरज है… 

सुन्दरता 
केवल फरेब है ,
मन बाँधे जो 
पायजेब है ,
         सब डूबे 
         उसके सम्मोहन ,
अपनी खुशियाँ 
सिर्फ़ ललक तक । 

          यह सूरज है ,
          चित्र - फ़लक तक । 


                               - श्रीकृष्ण शर्मा 

_______________________
पुस्तक - '' अँधेरा बढ़ रहा है ''  ,  पृष्ठ - 20 , 21

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Friday, November 20, 2015

'' आकाश चकित '' नामक मुक्तक , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के मुक्तक - संग्रह - '' चाँद झील में '' से लिया गया है -



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Thursday, November 19, 2015

'' साँस बुढ़ाई है '' नामक मुक्तक , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के मुक्तक - संग्रह - '' चाँद झील में '' से लिया गया है -





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Wednesday, November 18, 2015



'' आवागमन '' नामक मुक्तक  , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के मुक्तक  - संग्रह - '' चाँद झील में '' से लिया गया है -
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Tuesday, November 17, 2015

'' अँधेरे में हम '' नामक नवगीत , स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' अँधेरा बढ़ रहा है '' से लिया गया है -









सच है , आज अँधेरे में हम !!

रचा कभी उजियारा हमने ,
आज मावसी घेरे में हम !
सच है , आज अँधेरे में हम !!

            जुगनू अब अम्बर हथियाये ,
            अंधों ने सूरज लतियाये ,
            बौने शीर्ष शिखर कब्जाये ,

            किन्तु जीत कर भी हम हारे ,
            उफ़ , गूँगों  - बहरों के द्वारे ,

इस दुनियावी खेरे में हम !
सच है , आज अँधेरे में हम !!


                               - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' अँधेरा बढ़ रहा है ''  ,  पृष्ठ - 19

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Monday, November 16, 2015

'' धूप छिपी '' नामक नवगीत , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' अँधेरा बढ़ रहा है '' से लिया गया है -









मेघों से डर कर ,
धूप छिपी । 

चन्द्रमा 
दिख रहा है 
कुछ - कुछ ,
         रेत में ,
         अधढँकी पड़ीं सिपी । 
         मेघों से डर कर ,
         धूप छिपी । 

लगता 
घर है 
उराँव का ये ,
         अँगनई सभी है ,
         राख लिपी । 

मेघों से डर कर ,
धूप छिपी ।  


                        - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' अँधेरा बढ़ रहा है ''  ,  पृष्ठ -18

सुनील कुमार शर्मा  
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Sunday, November 15, 2015

'' सन्ध्या - दो '' नामक नवगीत , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' अँधेरा बढ़ रहा है '' से लिया गया है -









         सन्ध्या के संग मिटा ,
         सूरज का स्वर्ण - लेख । 

डूब गयी सबकी सब 
बस्ती काले जल में ,
उलझा रह गया शिखर 
मन्दिर का बादल में । 
         यात्राएँ ठहर गयीं 
         सड़कें अधरंग देख । 

नीड़ों में सोयी है 
अब थकान दिन भर की ,
जाग रहा सिर्फ दिया 
आस सँजो घर भर की । 
         सन्नाटा बजता है ,
         रातों की लिये टेक । 

धरती का उजियारा 
हथियाया तारों ने ,
गठियाये सपने सब 
धूर्त औ  ' लबारों ने ,
         उफ़ , पिशाच - सीनों में ,
         गड़ी नहीं किरन - मेख ।  


                                  - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' अँधेरा बढ़ रहा है ''  ,  पृष्ठ - 17

सुनील कुमार शर्मा  
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Saturday, November 14, 2015

'' संध्या - एक '' नामक नवगीत , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' अँधेरा बढ़ रहा है '' से लिया गया है -









संध्या - एक 
--------------

बैठ गयी है 
ऊपर चढ़ कर धूप 
        नीम पर ,
        लेकिन 
        साड़ी का पल्लू 
        लटका मुँडेर पर । 

दिन भर 
चल कर थका 
और माँदा ये सूरज ,
फिसला चला जा रहा 
घाटी की ढलान से । 

        खेत चुग रहे पाखी 
        अब उड़ चले गगन में ,
        जब कि चलायी गोफन 
        संध्या ने मचान से । 
बोझिल क़दमों लौट रही है 
हवा भीलनी ,
अपने आँचल में 
मादक महुआ समेत कर । 
घनी झाड़ियों 
अलसाया - ऊँघता पड़ा था 
दिन भर रीछ - सरीखा तम ,
अब बढ़ा आ रहा । 
        निकल - निकल कर 
        अन्दर से आ रहीं तरैयाँ ,
        देख रहीं 
        नंगा जंगल 
        दूधों नहा रहा । 

शहर बदर थी 
जो वीरानी औ ' सूनापन ,
बस्ती में लाता 
सन्नाटा उन्हें घेर कर । 


                                   - श्रीकृष्ण शर्मा   

__________________________
पुस्तक - '' अँधेरा बढ़ रहा है ''  ,  पृष्ठ - 15 ' 16

सुनील कुमार शर्मा
पुत्र –  स्व. श्रीकृष्ण शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय ,
पचपहाड़ , जिला – झालावाड़ , राजस्थान .
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Thursday, November 5, 2015

ज्योति - गीत ( चार ) - '' दिवाली के दीप जलाने वालों के नाम '' नामक नवगीत , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' अँधेरा बढ़ रहा है '' से लिया गया है -









कुछ दिनों पहले जलाये 
दीप हमने ढेर सारे ,
रोशनी से भर गये थे 
घर गली छज्जे दुआरे । 

            किन्तु वह सब रात भर का था ,
            सच कहें तो बात भर का था । 

ज़िन्दगी के सँग सुबह की 
चूड़ियाँ जब कुनमुनायीं ,
जब कि पूरव के क्षितिज पर 
धूप चढ़ कर गुनगुनायी 

            बुझ गये वे दीप जिनने 
            रात भर अँधियार झेले ,
            जो कि निशि के राज्य में भी 
            सिर उठा कर थे अकेले । 

जो गला कर नेह अपना ,
काँपती साँसें जला कर ,
दे रहे थे जो उजाला ,
सिर्फ कज्जल - धूम्र पाकर । 
उन दियों ने अन्त में 
निज प्राण त्यागे ,
सूर्य के इस देश में 
दीपक अभागे । 
           सब अँधेरे में अचानक खो गया है ,
           आज यह इंसान को क्या हो गया है ?

क्या कहें ?
सच तो यही है -
जो जले ,
जिनने उजाला भी दिया ,
अँधियार में हैं । 
           देश की ख़ातिर 
           जिये औ ' मरे जो ,
           उन सब शहीदों की शहादत की कथाएँ 
           विस्मरण के गार में है । 

स्वेद जिसका 
जिन्दगी के मोतियों को आब देता ,
वही हलधर ,
साँस लेता पतझरों में । 
           कर्म जिसका 
           सभ्यता को सूर्य - जैसी ताव देता ,
           उस भगीरथ की बसी दुनिया 
           उजड़ते और ढहते खँडहरों में । 
पर ,
मुखौटे बाँध 
सत्ता में विषैले नाग बैठे । 
और पूजाघरों में 
बहुरूपिये रख आग बैठे । 
           स्वार्थान्ध कुबेर 
           लक्ष्मी स्याह कर दासी बनाये । 
           रक्त - प्यासे भेड़िये 
           हर भेड़ पर आँखें गड़ाये । 

जिन्दगी 
लाचार औ ' बेबस खड़ी ,
हैवानियत हँसती । 
बढ़ रही हर चीज़ की क़ीमत ,
मगर इंसानियत सस्ती ।
इसी से यह ग़रीबी , भुखमरी , बेरोजगारी है ,
कफ़न को नोंचने तक की बनी नीयत हमारी है । 

मगर अब भी 
अँधेरे के लिए दीपक न बन पाये ,
नहीं इंसानियत के दर्द से अब भी पिघल पाये ,
पतन की इन्तेहा यह देश को बदनाम कर देगी ,
ये हालत हम सभी को विश्व में गुमनाम कर देगी । 

अँधेरा 
बाहरी हो 
या कि हो भीतर ,
हमें गुमराह करता है ,
कि हो इंसान कैसा भी 
अँधेरे से सदा वह डरा करता है । 
           इसी से -
           है तुम्हें सौगन्ध माटी की ,
           - नहीं सोना ,
           - जगे रहना ,
           - कि अपने ग़लत कामों से 
           कभी बनना नहीं बौना ,
           - अँधेरे में नहीं खोना । 

इसी से - 
एक दिन केवल दिवाली को 
जलाना दीपकों का है नहीं काफी ,
जलो खुद , दूसरों को भी उजाला दो ,
- यही अब रह गयी है राह बस बाकी ।  


                                           - श्रीकृष्ण शर्मा 

____________________________
पुस्तक - अँधेरा बढ़ रहा है ''  ,  पृष्ठ - 91, 92 , 93 , 94

सुनील कुमार शर्मा  
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Wednesday, November 4, 2015

ज्योति गीत ( तीन ) - '' अँधेरा बढ़ रहा है ! '' नामक नवगीत , कवि स्व. श्री श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' अँधेरा बढ़ रहा है '' से लिया गया है -









अँधेरा बढ़ रहा है ,
बात क्या डर की ?
रखा है दीप आले में ,
जलाओ तो !
       अँधेरा बढ़ रहा है !

यही है दीप ,
जब सूरज नहीं रहता ,
उजाले की 
       यही तो बाँह गहता है ,
तिमिर के अन्ध सागर में 
सहज मन से 
       यही तो रोशनी की कथा कहता है ,
कि जब सब मस्त सोते 
नींद की बाँहों ,
अकेला 
       रात भर लड़ता ,
                  अँधेरों से ,
तनिक दे स्नेह ,
इसका मन बढ़ाओ तो !
       अँधेरा बढ़ रहा है !

बड़ा मुश्किल समय है ,
क्रूर ग्रह घिर कर 
       लगे हैं 
                 जिन्दगी को स्याह करने में ,
ख़ुशी के एक पल को छीन 
हर पल में 
       हजारों 
                  दहशतों का ज़हर भरने में ,
पिशाचों - सिरकटों का दौर ,
यह मावस ,
       सँभल कर ,
       दीप से दीपक जलाओ तो ,
       बबंडर रोशनी का 
       तुम उठाओ तो !
                  अँधेरा बढ़ रहा है !  


                                                        - श्रीकृष्ण शर्मा 

_________________________________
पुस्तक - '' अँधेरा बढ़ रहा है ''  ,  पृष्ठ - 89 , 90

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Tuesday, November 3, 2015

ज्योति गीत ( दो ) - '' मांगलिक ऋचाएँ गा लें ! '' नामक नवगीत , कवि स्व. श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' अँधेरा बढ़ रहा है '' से लिया गया है -









 सूरज 
ब्लैकहोल में डूबा ,
दिन अधमरा पड़ा ,
अपना जाना - पहचाना सब ,
अन्धकार में गड़ा !

        नील भित्ति में 
        जड़े हुए हैं
        मटमैले - से काँच,
        काल रात्रि में 
        दफ़्न हुई - सी 
        है जीवन की आँच !

बालो तुम 
चौमुखा दीप इक ,
एक दीप हम बालें ,
गहन तिमिर को 
किरनों  - जैसा ,
आओ चलो खंगालें !

       ज्योति - पर्व पर 
       उजियारी गंगा में 
       चलो नहा लें ,
       स्वस्तिक - चौक - माँड़ने रच ,
       मांगलिक ऋचाएँ गा लें ! 


                                    - श्रीकृष्ण शर्मा 

__________________________
पुस्तक - '' अँधेरा बढ़ रहा है ''  ,  पृष्ठ - 87 , 88

सुनील कुमार शर्मा  
पुत्र –  स्व. श्रीकृष्ण शर्मा ,
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Monday, November 2, 2015

ज्योति गीत ( एक ) - '' अता - पता सच का न कहीं ! '' नामक नवगीत , कवि स्व. श्रीकृष्ण शर्मा के नवगीत - संग्रह - '' अँधेरा बढ़ रहा है '' से लिया गया है -









हर ओर धुँआ , हर ओर घुटन ,
हर ओर शूल , हर ओर चुभन ,
है अता - पता सच का न कहीं ,
हर ओर मुखौटे  या चिलमन । 

             हर ओर झूठ , हर ओर लूट ,
             हत्या , आतंक , अपहरण , भय ,
             है गर्म गोश्त पर गिद्ध - दृष्टि ,
             ख़बरों तक सिमटी जीवन - लय । 

शतरंजी चालों में माहिर ,
' क्राइम - क्राउन ' दोनों सहचर ,
जन की ठठरी पर सत्ता - सुख ,
चौपट राजा , अन्धेर नगर । 

             अस्तित्व बचाना है , आओ ,
             कुछ त्यागो , होमो , गुस्साओ ,
             धो भावस की कालौंछ सभी ,
             कर दो गुलाल औ ' स्वर्णानन !  


                                                - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' अँधेरा बढ़ रहा है ''  ,  पृष्ठ - 86

सुनील कुमार शर्मा  
पुत्र –  स्व. श्रीकृष्ण शर्मा ,
जवाहर नवोदय विद्यालय ,
पचपहाड़ , जिला – झालावाड़ , राजस्थान .
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