बादल तो आये
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बादल तो आये , पर बिन बरसे ही चले गये ।
सात - सात दिन तक सावन में
मेघिल झर झरना ,
सच पूछो तो हुआ आज की
पीढ़ी को सपना ;
क़त्लेआम वनों का कर , लगता हम छले गये ।
बादल तो आये , पर बिन बरसे ही चले गये । ।
बिगड़ा मौसम का मिजाज़ ,
गरमाये सूरज जी ,
हावी होती हरीतिमा पर ,
मरुथल की मरज़ी ,
ज़हर - बुझी है हवा , कान पेड़ों के मले गये ।
बादल तो आये , पर बिन बरसे ही चले गये । ।
कंकरीट के जंगल उगकर
होने लगे घने ,
अन्धे - तंग गली - कूँचे सब
गन्दे , कीच - सने ;
पाश धूप के तन में धुन्ध - धुएँ के डले गये ।
बादल तो आये , पर बिन बरसे ही चले गये । ।
देहरी को लीप कर सवेरे
रंगोली रचना ,
उत्सव पर मेंहदी व महावर
गीत - नाद - हँसना ;
भाषा - भूषा - संस्कृति के सब गौरव दले गये ।
बादल तो आये , पर बिन बरसे ही चले गये । ।
बाल बिखेरे धूल घुड़चढ़ी
अम्बर में करती ,
शोकगीत लिखती हर तितली
तिल - तिल कर मरती ;
शोर बन गया जालिम इतना , सब पग तले गये ।
बादल तो आये , पर बिन बरसे ही चले गये । ।
आतंकित है आज प्रकृति
बढ़ रहे प्रदूषण से ,
पर्यावरण मिट रहा है
पगलाये दूषण से ;
नाश देखता , मनुज मरण - पथ में बढ़ भले गये ।
बादल तो आये , पर बिन बरसे ही चले गये । ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 31 , 32
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धन्यवाद मयंक जी |
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