तुम गये तो
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बन्धु मेरे ,
तुम बिना पिघले नहीं
मेरे अँधरे !
तुम गये तो
गया दिन भी ,
ज्योति रह पायी नहीं
फिर एक छिन भी ;
किन्हीं तहखानों हुए
बन्दी उजेरे ,
बन्धु मेरे !
ढले काँधे ,
विन्ध्य - जैसा बोझ लादे ,
मर गये संघर्ष में
पुख्ता इरादे ;
छिने मौरूसी हक़ों वाले
हमारे स्वर्ण डेरे ,
बन्धु मेरे !
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 53
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बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteकाव्य सौरभ (कविता संग्रह ) --द्वारा -कालीपद "प्रसाद "
अँधेरे का राज होना ही था रोशनी के बिना!
ReplyDeleteसुंदर!
धन्यवाद प्रसाद जी |
ReplyDeleteधन्यवाद वाणी जी |
ReplyDeleteधन्यवाद वाणी जी |
ReplyDeleteधन्यवाद प्रसाद जी |
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