हम अपशकुनी ख़त
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शोषण के हाथों
हम हैं सिर्फ़ खिलौने।
जितनी चाबी दी
उतना ही हम डोले ,
जो भरा गया था
हम में
वह ही बोले ;
क्या अपना ?
अपने लिए भले
हम हों चाँदी या सोने ।
यों तो हममें हैं
हाड़ -मांस औ ' साँसें ,
पर फुरसत किन्हें
जो
हममें मनुज तलाशें ;
हम उनके लिए
घिनौने जूठे दौने ।
खुद हम अपशकुनी ख़त ,
जिनके कि फटे कोने ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 27
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हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार (07-04-2015) को "पब्लिक स्कूलों में क्रंदन करती हिन्दी" { चर्चा - 1940 } पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद मयंक जी |
ReplyDeleteबढ़िया
ReplyDeleteबढ़िया
ReplyDeleteकटु सत्य
ReplyDeleteहम खुद अपने अपशकुनी खत.
धन्यवाद सु - मन जी |
ReplyDeleteधन्यवाद मन के - मनके जी |
ReplyDeleteधन्यवाद मन के - मनके जी |
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