उठ रहीं लपटें
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उठ रहीं लपटें !
सो रहे थे
रात को जब लोग
मस्ती में ,
सिरफिरों ने
तब लगा दी आग
बस्ती में ;
चीख - चिल्लाहट मची थी ,
सिर्फ़ घबराहट बची थी ,
देखते सब राख होते ,
पर जियाले , धूल - मिट्टी
आग पर पटकें !
हादसों के
ख़ौफ़ में डूबी
हुई राहें ,
मौत को
हर मोड़ पर फैली
हुई बाँहें ,
हर क़दम बारूद के घर ,
वहम , संशय , फ़िक्र औ ' डर ,
इन क्षणों हैं आग कितने ,
जलाने आतंक को जो
लपट बन झपटें !
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 47
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यथार्थ का चित्र काव्यात्मक भाषा में प्रस्तुत कर दिया गया है । कवि को बधाई ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
ReplyDeleteधन्यवाद सुधेश जी |
ReplyDeleteधन्यवाद मदन जी |
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