मैं फिर भी न सपड़ा
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ठीक बाहर
याकि मेरे ठीक भीतर
एक मुर्दा ज़िन्दगी
औ ' शहर उजड़ा ।
ओफ ,
जब ये धड़कता है दिल
लगता मांस का एक लोथड़ा है ,
और मैं महसूसता हर पल ;
कि आफ़त - सा कोई पीछे पड़ा है ;
अदबदा कर भागता मैं
जान अपनी छोड़ ,
गिरता और पड़ता
पाँव होते हुए लँगड़ा ।
ख्वाब में
डर से निकलती चीख ,
लगता हो गयी हैं अधमरी साँसें ,
धँसे हैं रक्त - प्यासे ड्रेकुला के दाँत ,
खुलते जा रहे हैं देह के गाँसे ;
हो रही इन ठोकरों में
है कपाल - क्रिया ,
मैँ फिर भी न सपड़ा ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 57
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