Monday, September 21, 2015

‘’ ओ गीतकार ‘’ नामक गीत , कवि स्व . श्रीकृष्ण शर्मा का गीत संग्रह – ‘’ बोल मेरे मौन ‘’ से लिया गया है









दुख - दर्द लिये ओ गीतकार ,
तू अपनी मस्ती में खोया !!

तुझ पर हँसते जाते अभाव ,
डँस रहे उपेक्षा के तक्षक ,
तिल - तिल कर जलता जाता तू 
अपने गीतों में भोर तलक ;

पतझर दरवाज़े खड़ा हुआ ,
खण्डहर पौली में अड़ा हुआ ,

पर अमृत अौरों को देकर ,
तूने खुद विष का घट ढोया !

दुख - दर्द लिये ओ गीतकार ,
तू अपनी मस्ती में खोया !!


                                    - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 66










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Saturday, September 19, 2015

‘’ छेड़ो मत ‘’ नामक गीत , कवि स्व . श्रीकृष्ण शर्मा का गीत संग्रह – ‘’ बोल मेरे मौन ‘’ से लिया गया है -









छेड़ो मत , अपनी ही पीड़ा में खोया जो ,
फूट पड़ेगा , चुप है , अभी - अभी सोया जो । । 

क्षत - विक्षत जो कि हुआ 
सुबह के लिए लड़कर ,
उसकी ही काया पर 
लिपटे सौ - सौ विषधर ,

जिनको काँधे लेकर 
शाही सम्मान दिया ,
पीते हैं वही रक्त 
अब पिशाच सिर चढ़कर ;

पर उनको एक दिवस चखना ही होगा वो ,
उनने इस धरती में कालकूट बोया जो । 

छेड़ो मत , अपनी ही पीड़ा में खोया जो ,
फूट पड़ेगा , चुप है , अभी - अभी सोया जो । । 


                                                    - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 76



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‘’ अम्बर में तारे ‘’ नामक गीत , कवि स्व . श्रीकृष्ण शर्मा का गीत संग्रह – ‘’ बोल मेरे मौन ‘’ से लिया गया है









चमक रहे अम्बर में तारे । । 

लेकिन अँधियारा धरती के ,
करके बैठा बन्द किवारे । 
चमक रहे अम्बर में तारे । । 

दिन भर सूरज सिर पर ढोया ,
दिन भर खून - पसीना बोया ,
थका और हारा आधा जग ,
निंदिया की बाँहों में खोया ;

पर अपरूप सुघरता वाले ,
मोहक , सुखप्रद और निराले ,

इस मन के आँगन में किसने 
ये सपनीले यान उतारे ?
चमक रहे अम्बर में तारे । । 


                               - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 60











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Thursday, September 17, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गया गीत - '' गीला मौसम ''









आया गीला - गीला मौसम । । 

बूँदा - बाँदी - बौछारों से ,
हुआ बहुत रपटीला मौसम । 
आया गीला - गीला मौसम । । 

धूप बन गई सपना दिन का ,
सूरज का सुख बस पल - छिन का ,
धरती के उदास आँगन में 
घुँघरू छनक रहा झिनपिन का ;

इन्द्रधनुष हाथ में उठाए ,
रंग - रँगीले बादल आए ,

पर विधुत की मुस्कानों में ,
बँधता नहीं हठीला मौसम । 
आया गीला - गीला मौसम । । 


                               -  श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 55









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पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गीत - '' सन्नाटे से कौन लड़े ? ''









गुमसुम - सी है शाम 
और ये चुप - चुप पेड़ खड़े । 

दहक - दहक कर सूर्य 
कोयला होता चला गया ,
भरकर तेज उड़ान 
घौंसले लौटी अभी बया । 

पीछे दुष्ट पिशाच 
अँधेरे का जादू काला ,
डब - डब आँखों ज्योति 
देखती घायल उजियाला । 

बड़ी अनमनी हवा ,
कि सन्नाटे से कौन लड़े ?

गुमसुम - सी है शाम 
और ये चुप - चुप पेड़ खड़े । 


                                  - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 58










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Tuesday, September 15, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गया गीत - '' सहमा सन्नाटा ''









सहमा - सहमा - सा सन्नाटा । । 

स्तब्ध किसी बालक जैसा है ,
जिसे गया जोरों से डाँटा । 
सहमा - सहमा - सा सन्नाटा । । 

जाती है सन्ध्या की वेला ,
बियाबान रह गया अकेला ,
यों ही उसने फैंक दिया है 
नभ - सर में चंदा का ढेला ;

कोलाहल ने होंठ चुपाए 
चहल - पहल के दृग अलसाए ,

गुमसुम औ ' निस्पन्द नगर है ,
जैसे किसी साँप ने काटा । 
सहमा - सहमा - सा सन्नाटा । । 


                                   - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 59












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Monday, September 14, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गया गीत - '' अँधियारे की आँख ''









सन्ध्या क्या आई कि तिमिर का 
उमड़ पड़ा है एक समंदर । 
संज्ञा का पार्थक्य मिटाने ,
उठता जैसे - एक बवंडर । 

सूरज अपने साथ ले गया ,
इन्द्रधनुष के सब रंगों को । 
सिर्फ़ नींद का आँचल ढाँपे ,
सपनों के मादक अंगों को । 

नहीं दिखाई देता कुछ भी ,
सुन पड़ती है आवाज़ें भर । 
अँधियारे की आँख - सरीखा ,
दीप चमकता दूर कहीं पर । 


                                 - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ -62












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Sunday, September 13, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गीत - '' अमृत - घट फूट गया ''









सपना जो पाले थे , टूट गया । । 

भुरहारे क्षितिज हुआ अरुणीला ,
टीले आ बैठ गया सूरज ,
दिन ने घर के बाहर पाँव धरे ,
अपने अंधे अतीत को तज ;

किन्तु धूप में आँखें चुँधियाई ,
सही राह अगलों ने अलगाई ,

लक्ष्य - भ्रष्ट होकर शर छूट गया ,
उफ़ , अमृत - घट गिर कर फूट गया । 

सपना जो पाले थे , टूट गया । । 


                                     - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 63









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Saturday, September 12, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गया गीत - '' सपने ''









सपने तो सपने होते हैं । । 

फिर हम सब क्यों उनकी खातिर ,
हँसते हैं अथवा रोते हैं ?
सपने तो सपने होते हैं । । 

इनकी काया बड़ी सलोनी ,
इनमें मायावी अनहोनी 
निंदिया के ये पुत्र , जागरण 
के संग इनकी साँसें खोनी ;

झूठे होकर भी ये सच हैं ,
सच होकर भी हैं ये झूठे ,
ये अभाव को भाव बनाते ,
रचते आँसुओं से फुलबूटे ;

इसीलिए तो अपनों से भी 
ये ज्यादा अपने होते हैं ,
और टूट जाने पर इनके 
हम बच्चों - जैसे रोते हैं । 
सपने तो सपने होते हैं । । 


                              - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 65










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Friday, September 11, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गीत - '' कोयल फिर से लगी कुहुकने ''









कोयल फिर से लगी कुहुकने । । 

लेकिन मेरे इस अन्तस में ,
पीड़ा कौन लगी फिर दुखने ?
कोयल फिर से लगी कुहुकने । । 

अमराई फिर बौराई है ,
मधुऋतु फिर सजधज आई है ,
प्रकृति - सुन्दरी ने भी फिर से 
ली ये मादक अँगड़ाई है ;

दिशा - दिशा औ ' कोना - कोना 
है उमंग - उत्साह सलोना । 

लेकिन इस संसार - समर में ,
मेरी शक्ति लगी फिर चुकने । 
कोयल फिर से लगी कुहुकने । । 


                                 - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 54









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पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गीत --- '' अग्नि के फूल ''









ढाकवनी में आग लगी है । । 

जाने कब की दबी हुई यह ,
चिनगारी वन में सुलगी है ?
ढाकवनी में आग लगी है । । 

लाल - लाल लपटें ही लपटें ,
पवन - झकोरों में लगती है 
ज्वाला लेती हुई करवटें ;

रक्त - कमल खिलते शाखों पर ,
सुर्ख अग्नि के फूल दहकते 
बुझे - बुझे - से इन ढाकों पर ;

लगता हर तरु पर सन्ध्या की 
लाल - लाल ओढ़नी टँगी है । 
ढाकवनी में आग लगी है । ।


                                    - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 53









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Wednesday, September 9, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गीत - '' मन की टहनी से उलझे ''









हिरन कुलाँचें भरता वन में ,
पाखी फुदक रहा फुनगी पर !
किन्तु करे क्या ह्रदय विचारा 
झुलस रहा सुधि की चिनगी पर ?

तिल - तिल कर दीपक जलता है ,
दिप - दिप कर जलते हैं तारे ,
घुट - घुट कर यह मन जलता है ,
प्राण , तुम्हारी सुधि के द्वारे !

चाँदी - जैसा ताजमहल है ,
सोने - सी सन्ध्या की काया । 
नीलम - वर्णी यमुना , लेकिन 
मन पत्थर जैसा पथराया !

नीमों हैं कच्ची निबौलियाँ ,
महुआ भरते मधु से प्याले । 
पर मन की टहनी से उलझे ,
सुधियों की मकड़ी के जाले । 


                             - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 52










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Tuesday, September 8, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गीत --- '' बेतवा नदी बहती ''









बेतवा नदी बहती ,
गाँव के सिवाने पर । 

कँकरीला - पथरीला 
पथ इसका पारदर्श ,
स्फटिक - शुभ्र जल जैसे  -
करता नभ से विमर्श ;

तट पर शिव - मन्दिर है ,
आस - पास जंगल है ,
मानव ही नहीं , ढोर -
डंगर का मंगल है ;

निर्मला - सदानीरा ,
बजा - बजा मंजीरा ;

मंगल - ध्वनि गाती - सी ,
जाती है पी के घर । 

बेतवा नदी बहती ,
गाँव के सिवाने पर । 


                            - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''   ,  पृष्ठ - 51




Monday, September 7, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गीत --- '' शहर छोड़ आये पीछे ''









हम शहर छोड़ आये पीछे ,
आगे पहाड़ , जंगल व गाँव । 

वह भीड़ - भाड़ वह कोलाहल ,
वह रातों में भी जगर - मगर ;
लेकिन अब गाँव जहाँ पर है ,
बस मौन , मौन का नीरव स्वर ;

शहरी सुविधाओं का न नाम ,
है यहाँ अभावों का मुकाम ;

चाहे खीजैं , चाहे भीजैं ,
चलना ही होगा पाँव -पाँव । 

हम शहर छोड़ आये पीछे ,
आगे पहाड़ , जंगल व गाँव । 


                                     - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 50









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Sunday, September 6, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - बोल मेरे मौन से लिया गीत --- '' पुरबा के संग ''










पुरबा के संग - साथ ,
दौड़ रहे मृगछौने । 

विन्ध्य के शिखर से चल 
घाटी में ये आते ,
जंगल से बस्ती तक 
दल के दल सुस्ताते ;

प्यासे तरु - सरि - प्राणी ,
करने को अगवानी ;

मुँह फाड़े ताक रहे ,
इनका पथ हर कोने । 

पुरबा के संग - साथ ,
दौड़ रहे मृगछौने । 


                         - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 49









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Saturday, September 5, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गीत --- '' ढँका बदलियों ने ''









ढँका बदलियों ने उमड़ कर घुमड़ कर ,
मुझे चाँद ने जब निहारा गगन से । 

कोई भावना थी
जो अभिव्यक्ति पाकर 
किसी गीत की 
आज संज्ञा बनी है ,

कोई कामना थी 
जो तुमसे बिछुड़कर
मेरे वास्ते 
आज सन्ध्या बनी है ,

कि पत्थर कहूँ या कहूँ देवता जो ,
न डोला किसी साधना से भजन से ?

ढँका बदलियों ने उमड़ कर घुमड़ कर ,
मुझे चाँद ने जब निहारा गगन से । 


                                              - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 48


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Friday, September 4, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गीत --- '' सहज न होता ''









सहज न होता दुख का सहना !!

आँखों में आँसुओं को भरना ,
शूलों को हाथों में गहना !
सहज न होता दुख का सहना !!

जब टूटे मनभावन सपना ,
तब अपने मन को सँभालना ,
कोई मीत राह में छूटे ,
तब उसकी सुधियाँ दुलारना ,

बहुत कठिन होता है सुनना 
चुप रहकर अपनी ही कमियाँ ,

पीकर कड़वे घूँट ज़हर के ,
रस की मीठी बातें कहना !
सहज न होता दुख का सहना !!


                             - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 47













Thursday, September 3, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गीत - '' दुख तो दुख है ''









दुख तो दुख है , मेरा हो अथवा तेरा !!

मेरा दुख क्या अलग ,
अलग क्या तेरा दुख ?
दुख की लिपि होती है 
एक , सभी के मुख !

अलग न दुख का दंश ,
दर्द औ ' संवेदन ,
अलग नहीं होता 
आँसुओं का खारीपन !

सच पूछो तो दुख जीवन की थाती है ,
दर्द सभी का , कवि की वाणी गाती है !

ठिठका हूँ मैं , जब - जब पीड़ा ने टेरा !
दुख तो दुख है , मेरा हो अथवा तेरा !! 


                                 - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 46












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Wednesday, September 2, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन '' से लिया गीत --- '' उसको नमन करें ''









रात के कुरूपा चेहरे पर 
आवरण सुनहरा डाल दिया ,
किसने सूरज को गेंद बना 
इस तम के बीच उछाल दिया ?

पेड़ों के हाथ दिये किसने 
रुमाल अनेकों रंगों के ?
हँसकर किसने ये साँसों का 
दीपक प्राणों में बाल दिया ?

किसने काया को रूप दिया ,
मदिरा दी मादक यौवन को ?
किसने जिन्दगी नाम लिख दी 
लाचार अभागे रज - कण को ?

जो हो , वह कारक का कारक ,
वह है अनादि , अविनाशी है ,
आओ , हम उसको नमन करें ,
जो हर घट - घट का वासी है !


                        - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 45












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Tuesday, September 1, 2015

पुस्तक ( गीत - संग्रह ) - '' बोल मेरे मौन से लिया गीत - '' क्या ये जग सपना है ? ''









सचमुच क्या ये जग सपना है ?

ये सूरज , ये चंदा - तारे ,
धरती के रंगीन नज़ारे ,
महमह पुष्प , फसल ये लहलह ,
हरहर तरु , ये झरझर धारे ,

ये चरते पशु , उड़ते खग ये ,
ये सड़कें , रेलें , नव मग ये ,
ज्ञान , कला संगीत , वाङ्मय ,
विज्ञानों के बढ़ते पग ये ,

माँ - बापू की वत्सलता ये ,
भ्रातृ - स्नेह , प्रिय कल्पलता ये ,
सुख - दुख , मिलन - विछोह - व्यथा ये ,
त्याग और बलिदान - कथा ये ,

' मैं ' ' तुम ' हैं क्या सिर्फ़ कल्पना ,
क्या असत्य सब ' कुछ ' अपना है ?

सचमुच क्या ये जग सपना है ?


                                 - श्रीकृष्ण शर्मा 

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पुस्तक - '' बोल मेरे मौन ''  ,  पृष्ठ - 44









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