कैसा यह दौर ?
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पंथ नहीं ,
फिर भी तो
चलने का अंत नहीं ।
पाँवों के नीचे आ
पगडंडी टूट गयी ,
आहट तक नहीं हुई
ख़ामोशी छूट गयी ;
मन होता
तोड़ूँ इस गहरे सन्नाटे को ,
पर मिलता वृंत नहीं ।
चल - चलकर आये
उस ठौर जहाँ -
मरुथल के भ्रम जन्मे ,
कुंठाएँ बंजर की
रीढ़ तोड़ते अभाव
सहती काया घर की ;
कैसा यह दौर ?
जहाँ
जगता भय सभी कहीं ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 23
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