दुर्गन्धों डूबी सुगंधियाँ
-------------------------
शीश तगाड़ी ,
बिना दिहाड़ी ,
सम्मुख ऊँची खड़ी पहाड़ी !
पस्त हौसले
त्रस्त धौंस ले
बिखर रहे हैं
बने घौंसले ;
किसको कोसें ,
किसको पोसें ,
अपनी मूंछें , अपनी दाढ़ी !
सबने चाहा ,
सागर थाहा ,
पर मंसूबा
था अनब्याहा ;
जैसे इंजन
छोड़ बढ़ गया ,
पीछे खड़ी रह गयी गाड़ी !
मुकुट ज़री के ,
माथे टीके ,
कुर्सी बैठे
लाट - सरीखे ;
सुविधाएँ
द्वारे दासी - सी ,
नंगे - भूखे - रुग्ण पिछाड़ी !
दुरभिसंधियाँ ,
कुहदबंदियाँ ,
दुर्गन्धों
डूबीं सुगंधियाँ ;
ये वहशी
दरिन्दगी उफ़ - उफ़ ,
साधो कत्तल , मारो फाड़ी !
- श्रीकृष्ण शर्मा
__________________
पुस्तक - '' एक नदी कोलाहल '' , पृष्ठ - 39 , 40
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
bahut khub kaha ji
ReplyDeleteधन्यवाद |
ReplyDelete