आकांक्षा
मैंने
कभी चाहा था
की चरणों पर धर सकूँ तुम्हारे
हाथों से उतार कर
-आकाश ।
पर क्या कहूँ
नियति के इस निष्ठुर व्यंग को ?
कि
जब थी तुम ,
खाली थे मेरे हाथ ।
और आज
जब सारा आकाश है हाथों में मेरे
-तुम जा चुकी हो !
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(१९६५) अक्षरों के सेतु /३०
कवि श्रीकृष्ण शर्मा
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