Friday, January 23, 2015

टूटी टाँग और जंगल नागफनी का

टूटी टाँग और जंगल नागफनी का     -----------------------------------
टूट गई है
चार में से एक टाँग ,
- चारपायी की
और लगा दी है मैंने
उसके नीचे तीन ईटें ,
जो अंग नहीं बन पायीं
प्लास्टिक सर्जरी के अभाव में ,
इसलिए चारपाई जाती है जहाँ ,
वहाँ ले जायी जाती हैं अलग से ईटें भी ।
ईटें : बैसाखी : लीवर :
यहीं है संतुलन लँगड़ी जिंदगी का ,
- बोझ का उठाना और रखना ।

अलमारी नहीं है ,
है सिर्फ़ बाबा आदम का बक्स ,
और उसमें भी नहीं है ढँकना 
इसलिए उसका ढँकना न ढँकना
- समान हैं  दोनों ,
किन्तु
उसमें पुरानी किताबें हैं
कपड़ों की जगह ,
अर्थात
वह वहाँ नहीं है
जिसको जहाँ होना चाहिए  ।
यही  जानकारी है -
असंतोष , अशांति , क्रांति ,
और इसका अज्ञान :
आध्यात्मिक  ज्ञान ।
इज़ारबंद ,
फटे पाजामे का
आज अलगनी है ,
शोभा बढ़ा रहा है जिसकी
क्षमा माँगने वाला बीस स्थानों पर
मेरा इकलौता कुर्ता ।
सम्पूर्ति का यह ढंग :
क्या कहूँ इसे - गाँधी , मार्क्स अथवा युंग ?

कमरे में
दस वर्ष पूर्व का कैलेण्डर
समय के हाथों पराजित ये कालपुरुष ,
जो सात दिनों की परिधि में
सँजोये है समस्त तिथियों को,
पर अपना सम्बन्ध तोड़ कर दिनों से
आज कालातीत हैं जिसकी तिथियाँ
वर्तमान में रहते हुए ,
ख़रीदा था मैंने लक्ष्मी -पूजन के लिए ,
किंतु लक्ष्मी चित्र रहा गयी ,
और तब से आज तक
पूजता आ रहा हूँ मैं
उलूक को ।
साधारण व्यक्ति ही
पहुँचते हैं ,
साधारणीकरण की इस स्थिति तक ।

मैं यन्त्र नहीं हूँ ,
पर बना दिया है यन्त्रवत् मुझे
अभावों ने ,
और आज -
मैं भूख बुझाता हूँ काग़ज़ से
और भाग्य चमकाता हूँ काली स्याही से ।
बन गयी हैं बैरोमीटर
मेरी मुट्ठियाँ ,
जो बंधती चली जाती हैं
ठण्ड बढ़ने के साथ - साथ
और गर्मी के साथ - साथ
पिघलने लगती हैं ।

मेरी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप
आज घूम कर रह जाते हैं
मेरे काँटे
मैं असमर्थ हूँ
दूसरों के काँटे घुमाने में ।

मेरा ज्ञान
परिचित है भली - भाँति
आकाश के एक - एक नक्षत्र - पिण्ड से ,
किंतु  नित्य देख कर भी
जान नहीं पाया
आदमी को ।

इतनी छोटी हो गयी हैं
आज मेरी सीमाएँ सिमट कर ,
कि मैं जगह नहीं बना सकता
तुम्हारे लिए भी ।

किन्तु बाहर
दौड़ रही है
ढेरों धूल हवा के पीछे
और साथ दे रहे हैं उसका
खड़खड़ाते पत्ते ,
निश्चेष्ट खड़े हैं
संगीहीन प्रेत जैसे तरु ,
ठकठका उठते हैं जिनके कंकाल जब - तब ।

इस भयावह एकांत के ये विवर्त
जैसे लगती चली गयी हों गाँठ पर गाँठ
जिससे गुठ्ठल होकर रह गयी है मेरी  सामर्थ्य

अनसुलझी समस्याओं के आगे
सिर झुकाये खड़ी है बुद्धि
अपराधिनी - सी
और
कोई निर्णय नहीं दे पाता
न्यायाधीश के आसन पर बैठा हुआ
- मौन ।

तितर - बितर होता चला जा रहा है सब कुछ ,
किन्तु नहीं आयी है स्थिति अभी
आत्म - घात की ।

                                                                                   - श्रीकृष्ण शर्मा

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( रचनाकाल - 1967 )  , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु ''  / पृष्ठ - 72, 73, 74. 75














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