नहीं किये हैं हस्ताक्षर मैनें
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मैं प्रस्थापित नहीं हुआ
झूठे विश्वासों पर ,
गवाह है -
यह सन्नाटा ,
घुलता चला जा रहा है जो
धूँए - सा उत्सवों में ।
धुंधलाया नहीं
मेरा जाग्रत आत्म - बोध
षड्यंत्रों के संदिग्ध परिवेश में भी ,
मेरी चेतना ने
कोशिश की है
विभिन्न आयामों और कोणों से
सुघर - सुडौल चेहरे उकेरने की
विसंगतियों की पृष्ठभूमि में ।
मैं रात से हारा नहीं ,
गवाह हैं -
मुक्त होती दिशाएँ
धुंध और कुहासे की बाँहों से ,
जो झेल रही हैं अब
दिन की पहली किरण
अपने माथे पर ।
मैनें
गला नहीं घोंटा सत्य का
किसी अवैध संतान की भाँति ,
असमर्थित प्रतिभाओं का
अनौपचारिक समर्थन किया है मैंने ,
हृदय के समस्त ममत्व से
उनके उपेक्षित और तिरस्कृत व्यक्तित्व को
मैंने जलाया है मोमबत्ती - जैसा
और प्रकाशमान बनाया है ।
सामाजिकता की
अनेक प्रताड़नाओं
और लांछनों की भीड़ में
असमाप्त रही है एकांतिकता ,
गवाह हैं -
मेरी वे उदात्त आकांक्षाएँ ,
जो जन्मने के पूर्व ही मर गयीं ,
मेरी वे उदास प्रार्थनाएँ
जो अनुत्तरित रह गयीं ,
मेरी वे अकल्पनीय शाश्वत यंत्रणाएँ
जो जीवित रहेंगी
अगले क्षण भी ।
मैं जानता हूँ -
दुलरायी नहीं जावेंगी मेरी पीड़ाएँ ,
सुरक्षित रखा जायेगा मेरा इतिहास
संभावना नहीं है मुझे ,
लेकिन
छटपटा रही है
मुक्ति पाने को मेरी जो घुटन ,
क्या करूँ मैं उसके लिए ?
मैं जानता हूँ -
मेरी अभिव्यक्ति की नियति है
अपरिचय की मृत्यु ।
फिर भी -
समर्पित नहीं हुआ मैं
अस्वाभाविकताओं को ,
मैं विसर्जित नहीं हुआ विफलताओं में ,
गवाह हैं -
मेरे समक्ष रखे
पश्चातापों के कोरे संधि - पत्र ,
जिन पर
आज भी नहीं किये हैं हस्ताक्षर मैंने ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1966 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 66, 67, 68
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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मैं प्रस्थापित नहीं हुआ
झूठे विश्वासों पर ,
गवाह है -
यह सन्नाटा ,
घुलता चला जा रहा है जो
धूँए - सा उत्सवों में ।
धुंधलाया नहीं
मेरा जाग्रत आत्म - बोध
षड्यंत्रों के संदिग्ध परिवेश में भी ,
मेरी चेतना ने
कोशिश की है
विभिन्न आयामों और कोणों से
सुघर - सुडौल चेहरे उकेरने की
विसंगतियों की पृष्ठभूमि में ।
मैं रात से हारा नहीं ,
गवाह हैं -
मुक्त होती दिशाएँ
धुंध और कुहासे की बाँहों से ,
जो झेल रही हैं अब
दिन की पहली किरण
अपने माथे पर ।
मैनें
गला नहीं घोंटा सत्य का
किसी अवैध संतान की भाँति ,
असमर्थित प्रतिभाओं का
अनौपचारिक समर्थन किया है मैंने ,
हृदय के समस्त ममत्व से
उनके उपेक्षित और तिरस्कृत व्यक्तित्व को
मैंने जलाया है मोमबत्ती - जैसा
और प्रकाशमान बनाया है ।
सामाजिकता की
अनेक प्रताड़नाओं
और लांछनों की भीड़ में
असमाप्त रही है एकांतिकता ,
गवाह हैं -
मेरी वे उदात्त आकांक्षाएँ ,
जो जन्मने के पूर्व ही मर गयीं ,
मेरी वे उदास प्रार्थनाएँ
जो अनुत्तरित रह गयीं ,
मेरी वे अकल्पनीय शाश्वत यंत्रणाएँ
जो जीवित रहेंगी
अगले क्षण भी ।
मैं जानता हूँ -
दुलरायी नहीं जावेंगी मेरी पीड़ाएँ ,
सुरक्षित रखा जायेगा मेरा इतिहास
संभावना नहीं है मुझे ,
लेकिन
छटपटा रही है
मुक्ति पाने को मेरी जो घुटन ,
क्या करूँ मैं उसके लिए ?
मैं जानता हूँ -
मेरी अभिव्यक्ति की नियति है
अपरिचय की मृत्यु ।
फिर भी -
समर्पित नहीं हुआ मैं
अस्वाभाविकताओं को ,
मैं विसर्जित नहीं हुआ विफलताओं में ,
गवाह हैं -
मेरे समक्ष रखे
पश्चातापों के कोरे संधि - पत्र ,
जिन पर
आज भी नहीं किये हैं हस्ताक्षर मैंने ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1966 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 66, 67, 68
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