ख़ौफ़ से भरे हुए
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चन्द लम्हों पहले
इसी रास्ते तो गया है जुलूस
सीना फाड़ कर निकलीं
उसके नारों की आवाज़ें
उद्वेलित कर रहीं हैं सीने
हवाओं में फैलती हुई ।
उसके बढ़ते पाँवों के निशान
गड़ कर रह गये हैं सड़क में ,
कोलतार का बदन बन गया है
उसकी अपार ऊष्मा का संवाहक ।
हाथ फैलाये माँग रहे हैं दुआएँ
किनारों पर खड़े पेड़
जुलूस के जाँबाज़ नौजवानोँ के लिए ।
जिन्होंने लिखा है -
भूख ग़रीबी और ताकत के ख़िलाफ़
आत्म - सम्मान , समानता और आज़ादी के उसूलों को
- अपने ख़ून से ।
किन्तु फ़क हैं चेहरे ,
जैसे - निचुड़ गया हो लहू
बिना लड़े बेमतलब बूँद - बूँद ,
ख़ौफ़ से भरे हुए
- तमाशबीनों के ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1975 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 85
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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चन्द लम्हों पहले
इसी रास्ते तो गया है जुलूस
सीना फाड़ कर निकलीं
उसके नारों की आवाज़ें
उद्वेलित कर रहीं हैं सीने
हवाओं में फैलती हुई ।
उसके बढ़ते पाँवों के निशान
गड़ कर रह गये हैं सड़क में ,
कोलतार का बदन बन गया है
उसकी अपार ऊष्मा का संवाहक ।
हाथ फैलाये माँग रहे हैं दुआएँ
किनारों पर खड़े पेड़
जुलूस के जाँबाज़ नौजवानोँ के लिए ।
जिन्होंने लिखा है -
भूख ग़रीबी और ताकत के ख़िलाफ़
आत्म - सम्मान , समानता और आज़ादी के उसूलों को
- अपने ख़ून से ।
किन्तु फ़क हैं चेहरे ,
जैसे - निचुड़ गया हो लहू
बिना लड़े बेमतलब बूँद - बूँद ,
ख़ौफ़ से भरे हुए
- तमाशबीनों के ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1975 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 85
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