अकेलेपन का भय
----------------------
इस बरामदे में
कुर्सी पर मैं एकाकी
बैठा खुद की गढ़ी हुई सीमा में
बंदी मुझे बनाये हैं बांसों की बाढ़
खड़ी हुई है मुझे घेर कर
- खपच्चियों से निर्मित ये दीवार ।
मैं बैठा
पर इसके पार राह चलती है
चहल - पहल है , भीड़ - भाड़ है , कोलाहल है
मुझसे परे
- सभी की एक अलग बस्ती है
देख रहा हूँ मै नितांत अजनबी - सरीखा
- भाव रहित - सा
असम्पृक्त जो किये जा रहा मुझको
- सबसे औ ' बाहर से -
वह मेरे व्यक्तिगत अहम् है
मेरे पिछले अभ्यासों से खचित
- अलक्षित लक्ष्मण - रेखी तार ।
जब - तब शायद आकर्षित हो
या कि प्राप्त परिचय करने को
अथवा मेरे आश्रय में मन बहलाने को
या अपने विद्रोही जीवन का सूना एकांत मिटने
औ ' मुझसे दुलार पाने को -
कोलाहल से भाग
असंबंधित स्वर मुझ तक आ जाते हैं ।
और अपरिचित वे
मेरे गम्भीर मौन के सम्मुख
बच्चों - जैसे नहीं ठहर पाते हैं ,
निस्सहाय आस्था - हारे - से वे बेचारे
मनमारे डगमग गति से फिर
उल्टे पाँवों मुझसे दूर चले जाते हैं ।
बहुत चाहता हूँ मैं -
उनसे बात करूँ कुछ
आशा के औ ' विश्वासों के भाव भरूँ कुछ ,
उन्हें आवाज़ लगा कर रोकूँ
मैं न उन्हें ऐसे जाने दूँ ।
पर मिथ्या अभिमान बड़प्पन आड़े आता
कुण्ठाएँ रच मूक बनाता
और ' और ' फिर झूठी लाचारी का एक बहाना
लेकर
अनटेरे ही रह जाता हूँ
- मैं बैठा इस पार ।
ये वैयक्तिकता का झूठा पाश
कि ये कच्चा आश्वासन
ढह जाता आधारहीन - सा बिना नींव - सा
जब मेरे अनजाने ही
घुस आता है भीतर सूनापन ,
अट्ठहास करने लगता है
मुझे घेर कर ज़हरीला तम
गूँगी छायाओं का होने लगता नर्तन ।
जाने किस अनचीन्हे भय से
हो जाता है मूर्छित - सा मन ,
- उस अथाह मेँ मेरी ये सम्पूर्ण चेतना डूबी जाती ,
- मेरे प्राण पोर में आते ,
- आत्मा बहुत - बहुत घबराती ,
- मेरी चीख हाय , अनजन्मी ही मर जाती ।
हे प्रभु !
यह कैसी विपत्ति है
यह कैसा मेरा निष्कासन
जीवन के सौ - सौ रंगों से
यह कैसे मेरा निर्वासन ?
केवल अतल - अछोर - भयावह
अँधियारे का ज्वार ,
जीते - जी ही
मेरे औ ' जीवन के बीच दरार ।
किन्तु
अचानक
कहीं पास ही कुत्ता रोया ,
- लगा की जीवन मारा नहीं है ,
अनस्तित्व के क्षण में भी
है वह अपना अस्तित्व बचाये ,
मुझको यह अहसास हुआ -
- कुत्ता यह चाहे
किन्तु एक प्राणी तो है यह ,
- भले रुदन ही सही ,
मगर जीवित प्राणी की वाणी तो यह ।
इसके स्वर ने ही तो -
मुझको है अथाह शून्य से बचाया ,
अनजाने भय से यह मुझको बाहर लाया ,
मेरी दुर्बलताओं को बल दिया ,
टूटती आस्थाओं में प्राण जगाया ।
लगा
कि मैनेँ मर कर
फिर यह जीवन पाया
इस स्वर से ही ।
इसीलिए
आभारी हूँ मैं
इस स्वर के प्रति ,
- भले यह व्यथित - आशंकित - भयग्रसित
करुण चीत्कार ।
- कवि श्रीकृष्ण शर्मा
( रचनाकाल - 1965 )
-----------------------------------------------
पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 49,50,51,52
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
----------------------
इस बरामदे में
कुर्सी पर मैं एकाकी
बैठा खुद की गढ़ी हुई सीमा में
बंदी मुझे बनाये हैं बांसों की बाढ़
खड़ी हुई है मुझे घेर कर
- खपच्चियों से निर्मित ये दीवार ।
मैं बैठा
पर इसके पार राह चलती है
चहल - पहल है , भीड़ - भाड़ है , कोलाहल है
मुझसे परे
- सभी की एक अलग बस्ती है
देख रहा हूँ मै नितांत अजनबी - सरीखा
- भाव रहित - सा
असम्पृक्त जो किये जा रहा मुझको
- सबसे औ ' बाहर से -
वह मेरे व्यक्तिगत अहम् है
मेरे पिछले अभ्यासों से खचित
- अलक्षित लक्ष्मण - रेखी तार ।
जब - तब शायद आकर्षित हो
या कि प्राप्त परिचय करने को
अथवा मेरे आश्रय में मन बहलाने को
या अपने विद्रोही जीवन का सूना एकांत मिटने
औ ' मुझसे दुलार पाने को -
कोलाहल से भाग
असंबंधित स्वर मुझ तक आ जाते हैं ।
और अपरिचित वे
मेरे गम्भीर मौन के सम्मुख
बच्चों - जैसे नहीं ठहर पाते हैं ,
निस्सहाय आस्था - हारे - से वे बेचारे
मनमारे डगमग गति से फिर
उल्टे पाँवों मुझसे दूर चले जाते हैं ।
बहुत चाहता हूँ मैं -
उनसे बात करूँ कुछ
आशा के औ ' विश्वासों के भाव भरूँ कुछ ,
उन्हें आवाज़ लगा कर रोकूँ
मैं न उन्हें ऐसे जाने दूँ ।
पर मिथ्या अभिमान बड़प्पन आड़े आता
कुण्ठाएँ रच मूक बनाता
और ' और ' फिर झूठी लाचारी का एक बहाना
लेकर
अनटेरे ही रह जाता हूँ
- मैं बैठा इस पार ।
ये वैयक्तिकता का झूठा पाश
कि ये कच्चा आश्वासन
ढह जाता आधारहीन - सा बिना नींव - सा
जब मेरे अनजाने ही
घुस आता है भीतर सूनापन ,
अट्ठहास करने लगता है
मुझे घेर कर ज़हरीला तम
गूँगी छायाओं का होने लगता नर्तन ।
जाने किस अनचीन्हे भय से
हो जाता है मूर्छित - सा मन ,
- उस अथाह मेँ मेरी ये सम्पूर्ण चेतना डूबी जाती ,
- मेरे प्राण पोर में आते ,
- आत्मा बहुत - बहुत घबराती ,
- मेरी चीख हाय , अनजन्मी ही मर जाती ।
हे प्रभु !
यह कैसी विपत्ति है
यह कैसा मेरा निष्कासन
जीवन के सौ - सौ रंगों से
यह कैसे मेरा निर्वासन ?
केवल अतल - अछोर - भयावह
अँधियारे का ज्वार ,
जीते - जी ही
मेरे औ ' जीवन के बीच दरार ।
किन्तु
अचानक
कहीं पास ही कुत्ता रोया ,
- लगा की जीवन मारा नहीं है ,
अनस्तित्व के क्षण में भी
है वह अपना अस्तित्व बचाये ,
मुझको यह अहसास हुआ -
- कुत्ता यह चाहे
किन्तु एक प्राणी तो है यह ,
- भले रुदन ही सही ,
मगर जीवित प्राणी की वाणी तो यह ।
इसके स्वर ने ही तो -
मुझको है अथाह शून्य से बचाया ,
अनजाने भय से यह मुझको बाहर लाया ,
मेरी दुर्बलताओं को बल दिया ,
टूटती आस्थाओं में प्राण जगाया ।
लगा
कि मैनेँ मर कर
फिर यह जीवन पाया
इस स्वर से ही ।
इसीलिए
आभारी हूँ मैं
इस स्वर के प्रति ,
- भले यह व्यथित - आशंकित - भयग्रसित
करुण चीत्कार ।
- कवि श्रीकृष्ण शर्मा
( रचनाकाल - 1965 )
-----------------------------------------------
पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 49,50,51,52
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
No comments:
Post a Comment