विश्वास है हाथों में हमारे !
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खजैले कुत्ते का त्रास कौन जानता है ,
हकलाहट को अनुप्रास कौन मानता है ,
तेली का बैल हो या इक्के का घोड़ा -
लाशों के लिए युद्ध कौन ठानता है ?
फिर -
अंधों के आगे
ये सब बनाव क्यों है ?
गूँगों और बहरों से भी दुराव क्यों है ।
जानते हैं हम
लँगड़ी - बौनी ज़िंदगी का
बैसाखियों वाला जुलूस
कुछ पन्नों तक जायेगा ,
और
उपलब्धियाँ उसकी
आम नहीं , कुछ ख़ास के ही दाय में आयेंगी ।
हम यह भी जानते हैं
चंद झंडाबरदारों का प्रवक्ता
यह इतिहास असत्य है ,
जो
नहीं दुहराता
जान - लेवा संघर्ष
हम - जैसे सामान्य जनों का ।
पर हम जानते हैं
शक्ति और सामर्थ्य बढ़ती हैं
जिस तेज़ी से / बह जाती हैं उसी गति से ,
और
रह जाते हैं
असमर्थताओं के ढूह
और उन पर खड़े चंद बुत ,
- असफलताओं के ।
इसलिए
विश्वास है
हाथों में हमारे
सदैव नहीं रहेगा
अब घुटन और यंत्रणाओं का
- एक छोर ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1973 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 81, 82
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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खजैले कुत्ते का त्रास कौन जानता है ,
हकलाहट को अनुप्रास कौन मानता है ,
तेली का बैल हो या इक्के का घोड़ा -
लाशों के लिए युद्ध कौन ठानता है ?
फिर -
अंधों के आगे
ये सब बनाव क्यों है ?
गूँगों और बहरों से भी दुराव क्यों है ।
जानते हैं हम
लँगड़ी - बौनी ज़िंदगी का
बैसाखियों वाला जुलूस
कुछ पन्नों तक जायेगा ,
और
उपलब्धियाँ उसकी
आम नहीं , कुछ ख़ास के ही दाय में आयेंगी ।
हम यह भी जानते हैं
चंद झंडाबरदारों का प्रवक्ता
यह इतिहास असत्य है ,
जो
नहीं दुहराता
जान - लेवा संघर्ष
हम - जैसे सामान्य जनों का ।
पर हम जानते हैं
शक्ति और सामर्थ्य बढ़ती हैं
जिस तेज़ी से / बह जाती हैं उसी गति से ,
और
रह जाते हैं
असमर्थताओं के ढूह
और उन पर खड़े चंद बुत ,
- असफलताओं के ।
इसलिए
विश्वास है
हाथों में हमारे
सदैव नहीं रहेगा
अब घुटन और यंत्रणाओं का
- एक छोर ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1973 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 81, 82
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