विडम्बना
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हम छटपटाते रहे
सुविधाओं के लिए
किन्तु अभाव हम पर हँसते गये ,
हम कसमसाते रहे स्वतंत्रता के लिए
किन्तु दबाव हमको कसते गये ।
बदसूरत दुर्भाग्य की छाया में
हमें असफल होना ही था ,
किन्तु अकर्मण्य सिद्ध हुए हम
समस्याओं के सामने ।
और
समस्याएँ भी एक नहीं
दो नहीं , एक के बाद एक
एक के साथ अनेक
- लम्बा सिलसिला -
इंटरव्यू के बेमानी बदज़ायक़ा प्रश्नों - जैसा ,
और
हमारा धैर्य चुकता गया
और हमारा माथा झुकता गया ।
तभी
वे आये
और हमें देखकर
हमारे चेहरे पर उभरे
किसी अदृष्ट लेख को पढ़कर
वे हँसते गये ।
और हम
अपनी ही असमर्थताओं की लज्जा में
धँसते गये गहरे
बहुत गहरे
और
हमारी यह गहराई ही
उनकी नींव है ,
जिस पर उनके प्रासाद खड़े हैं ,
और हम आज भी धरती में गड़े हैं ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1973 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 78, 79
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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हम छटपटाते रहे
सुविधाओं के लिए
किन्तु अभाव हम पर हँसते गये ,
हम कसमसाते रहे स्वतंत्रता के लिए
किन्तु दबाव हमको कसते गये ।
बदसूरत दुर्भाग्य की छाया में
हमें असफल होना ही था ,
किन्तु अकर्मण्य सिद्ध हुए हम
समस्याओं के सामने ।
और
समस्याएँ भी एक नहीं
दो नहीं , एक के बाद एक
एक के साथ अनेक
- लम्बा सिलसिला -
इंटरव्यू के बेमानी बदज़ायक़ा प्रश्नों - जैसा ,
और
हमारा धैर्य चुकता गया
और हमारा माथा झुकता गया ।
तभी
वे आये
और हमें देखकर
हमारे चेहरे पर उभरे
किसी अदृष्ट लेख को पढ़कर
वे हँसते गये ।
और हम
अपनी ही असमर्थताओं की लज्जा में
धँसते गये गहरे
बहुत गहरे
और
हमारी यह गहराई ही
उनकी नींव है ,
जिस पर उनके प्रासाद खड़े हैं ,
और हम आज भी धरती में गड़े हैं ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1973 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 78, 79
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