अवशिष्ट
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( ड़ॉ० धर्मवीर भारती की एक रचना से प्रेरित )
छूट गया हूँ मैं
तुम्हारे साथ ही पीछे
बहुत पीछे ,
यह तो छाँह है कोई
यहाँ जो चल रही है ,
या कि कोई और है यह ।
जो दिया है बीच से ही तोड़ जीवन ने
की जिसके जिस्म के ही अंश
नोंच - खरोंच डाले हैं
कि जिसके आस्था - विश्वास हारे हैं
कि जो टूटा , लुटा - सा और हारा - सा
खड़ा है आज इस संघर्ष के दौरान
प्रिय , मैं वह नहीं हूँ ।
आह ,
जिसकी चेतना - संवेदना निष्प्राण ,
जिसका रक्त भी पथरा गया है ,
धड़कनें तक स्तब्ध ,
जिसके शब्द भी निश्शब्द ,
कोई और है यह !
जो किसी स्नेहिल लहर के आगमन की
मूक स्मृति - सी
रह गई है रेत के मन पर बनी ,
यह छाँह है कोई ,
नहीं हूँ मैं ।
मैं नहीं हूँ ,
क्योंकि तुम तो जानती हो
दी चुनौती साथ में मैंने तुम्हारे जिंदगी को ,
जिंदगी के साथ हर संघर्स को मैंने लिया था ओढ़ ,
मैंने स्वयं के बल पर किया उपलब्ध सुखों को ,
स्नेह के उस इन्द्रधनुष को
जो की मेरे प्रति तुम्हारी आँख के
हर अश्रु में झलका !
मगर ,
मैं तो मनुज था ,
शक्ति की सामर्थ को भूला ,
महज उस छाँह पर फूला
बिछुड़ कर सूर्य से जो
बढ़ चली थी दूसरी ही ओर ,
जिसके दाय में था तिमिर का होना !
नहीं मैं आज हूँ वह
जो क़ि था पहले ,
मगर कैसे कहूँ ?
मैं वह नहीं हूँ ?
हूँ वहीं ,
सच है
मगर वह और कोई था
तुम्हारे साथ ही जो छूट गया है
बहुत पीछे ,
बहुत पीछे !
- कवि श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1966 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 58, 59
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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( ड़ॉ० धर्मवीर भारती की एक रचना से प्रेरित )
छूट गया हूँ मैं
तुम्हारे साथ ही पीछे
बहुत पीछे ,
यह तो छाँह है कोई
यहाँ जो चल रही है ,
या कि कोई और है यह ।
जो दिया है बीच से ही तोड़ जीवन ने
की जिसके जिस्म के ही अंश
नोंच - खरोंच डाले हैं
कि जिसके आस्था - विश्वास हारे हैं
कि जो टूटा , लुटा - सा और हारा - सा
खड़ा है आज इस संघर्ष के दौरान
प्रिय , मैं वह नहीं हूँ ।
आह ,
जिसकी चेतना - संवेदना निष्प्राण ,
जिसका रक्त भी पथरा गया है ,
धड़कनें तक स्तब्ध ,
जिसके शब्द भी निश्शब्द ,
कोई और है यह !
जो किसी स्नेहिल लहर के आगमन की
मूक स्मृति - सी
रह गई है रेत के मन पर बनी ,
यह छाँह है कोई ,
नहीं हूँ मैं ।
मैं नहीं हूँ ,
क्योंकि तुम तो जानती हो
दी चुनौती साथ में मैंने तुम्हारे जिंदगी को ,
जिंदगी के साथ हर संघर्स को मैंने लिया था ओढ़ ,
मैंने स्वयं के बल पर किया उपलब्ध सुखों को ,
स्नेह के उस इन्द्रधनुष को
जो की मेरे प्रति तुम्हारी आँख के
हर अश्रु में झलका !
मगर ,
मैं तो मनुज था ,
शक्ति की सामर्थ को भूला ,
महज उस छाँह पर फूला
बिछुड़ कर सूर्य से जो
बढ़ चली थी दूसरी ही ओर ,
जिसके दाय में था तिमिर का होना !
नहीं मैं आज हूँ वह
जो क़ि था पहले ,
मगर कैसे कहूँ ?
मैं वह नहीं हूँ ?
हूँ वहीं ,
सच है
मगर वह और कोई था
तुम्हारे साथ ही जो छूट गया है
बहुत पीछे ,
बहुत पीछे !
- कवि श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1966 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 58, 59
sksharmakavitaye.blogspot.in
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