जिज्ञासा और उपलब्धि
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( प्रथम सम्मिलन की अनुभूतियों को दिया गया शब्दरूप )
मेरा जिज्ञासु ह्रदय ,
पल भर को ठिठका
फिर ठहर गया ।
कौतुहल था शायद ,
शायद जिज्ञासा थी ,
क्योंकि -
उस धरातल पर
शब्द बेजरुरत थे ,
अनबोला ख़ामोशी
भाषा की परिणति थी ,
भावों की भाषा थी ।
अनहोना होने की आशा थी ।
आह ,
तभी आकर्षण के मंत्रों से कीला
मेरा यह भावुक मन ,
लहरों के गहरे में उतर गया ।
मेरा जिज्ञासु हृदय ,
पल भर को ठिठका
फिर ठहर गया ।
अनायास
अटाटूट पानी से भरी नदी
सूने औ ' अंधे गलियारों से
लाई मुझको समेटे
शत - सहत्र बाहों में ,
दिगंबरा अपरिसीम कविता के
वत्सला उजालों मेँ ,
लज्जारूण यौवन का
छंद हो मुखर गया ।
सीपी में ,
शंखों में ,
मोती औ ' मूंगों का
द्वीप - सा सँवर गया ।
मेरा जिज्ञासु हृदय
पलभर को ठिठका
फिर ठहर गया ।
अनायास
जिसमें थे जूही के फूल खिले अनगिनती ,
हरियाली छाँहों में
-बौराई -सी विनती ।
सौरभ ही सौरभ हैं ,
बिनपरसे
तन - मन औ ' प्राण में समा गया ,
मादकता का खुमार - जैसा कुछ छा गया ,
- मूर्छित बना गया ।
सांसों में
एक अजब गंध घुली ।
छवि की वह छुअन
मूक रोशनी लहर जैसी
बाहर से भीतर तक मुझको नहला गयी ।
बावला बना गयी ।
इस तन में
हुआ एक नया - नया संवेदन ।
नस - नस में
विधुत - सी दौड़ गयी ,
संयम के मर्यादित पहरों को तोड़ गयी ।
अगं - अंग कसा
आह , विह्वल मदमाता - सा
धन - ऋण के दो विलोम ध्रुवों को जोड़ गयी ।
पाटल के दल - के - दल
तिर आये बाहों में ,
इन्द्रधनुष उग आये
उम्र की निगाहों में ।
डूब गया
तन में तन
तृषित और आकांक्षित
मेरा रसभीगा मन ,
चन्दन की घाटी में उतर गया ।
मेरा जिज्ञासु हृदय ,
पल - भर को ठिठका
फिर ठहर गया ।
ये ही क्षण -
अमृत के बीजों को बोते हैं ,
ये ही क्षण -
जीवन में मधुरता संजोते हैं ,
ये ही क्षण -
सिरज रहे तुलसी औ ' कालिदास
ये ही क्षण -
आत्मप्रभ ज्ञान - दीप होते हैं ।
ये ही क्षण असंयम के
ये क्षण अमर्यादित
-पूजित हो पुण्य हुए ।
मुझको
जो परम्परा प्राप्त हुई
जीवन की
अपने से आगे वह मैंने बढ़ाने को ,
-प्राणों से प्राण रचे
पितृ - ऋण चुकाने को ।
सार्थक
औ ' पूर्णकाम
मेरा यह पिंड हुआ
देह - प्राण धन्य हुए ।
मेरा विचारक मन
संशय से परे
दिव्य भावों से भर गया ।
मेरा जिज्ञासु हृदय
पल - भर को ठिठका
फिर ठहर गया ।
------------------------------- - कवि श्रीकृष्ण शर्मा
( रचनाकाल - 1965 ) पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 45,46,47,48
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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( प्रथम सम्मिलन की अनुभूतियों को दिया गया शब्दरूप )
मेरा जिज्ञासु ह्रदय ,
पल भर को ठिठका
फिर ठहर गया ।
कौतुहल था शायद ,
शायद जिज्ञासा थी ,
क्योंकि -
उस धरातल पर
शब्द बेजरुरत थे ,
अनबोला ख़ामोशी
भाषा की परिणति थी ,
भावों की भाषा थी ।
अनहोना होने की आशा थी ।
आह ,
तभी आकर्षण के मंत्रों से कीला
मेरा यह भावुक मन ,
लहरों के गहरे में उतर गया ।
मेरा जिज्ञासु हृदय ,
पल भर को ठिठका
फिर ठहर गया ।
अनायास
अटाटूट पानी से भरी नदी
सूने औ ' अंधे गलियारों से
लाई मुझको समेटे
शत - सहत्र बाहों में ,
दिगंबरा अपरिसीम कविता के
वत्सला उजालों मेँ ,
लज्जारूण यौवन का
छंद हो मुखर गया ।
सीपी में ,
शंखों में ,
मोती औ ' मूंगों का
द्वीप - सा सँवर गया ।
मेरा जिज्ञासु हृदय
पलभर को ठिठका
फिर ठहर गया ।
अनायास
जिसमें थे जूही के फूल खिले अनगिनती ,
हरियाली छाँहों में
-बौराई -सी विनती ।
सौरभ ही सौरभ हैं ,
बिनपरसे
तन - मन औ ' प्राण में समा गया ,
मादकता का खुमार - जैसा कुछ छा गया ,
- मूर्छित बना गया ।
सांसों में
एक अजब गंध घुली ।
छवि की वह छुअन
मूक रोशनी लहर जैसी
बाहर से भीतर तक मुझको नहला गयी ।
बावला बना गयी ।
इस तन में
हुआ एक नया - नया संवेदन ।
नस - नस में
विधुत - सी दौड़ गयी ,
संयम के मर्यादित पहरों को तोड़ गयी ।
अगं - अंग कसा
आह , विह्वल मदमाता - सा
धन - ऋण के दो विलोम ध्रुवों को जोड़ गयी ।
पाटल के दल - के - दल
तिर आये बाहों में ,
इन्द्रधनुष उग आये
उम्र की निगाहों में ।
डूब गया
तन में तन
तृषित और आकांक्षित
मेरा रसभीगा मन ,
चन्दन की घाटी में उतर गया ।
मेरा जिज्ञासु हृदय ,
पल - भर को ठिठका
फिर ठहर गया ।
ये ही क्षण -
अमृत के बीजों को बोते हैं ,
ये ही क्षण -
जीवन में मधुरता संजोते हैं ,
ये ही क्षण -
सिरज रहे तुलसी औ ' कालिदास
ये ही क्षण -
आत्मप्रभ ज्ञान - दीप होते हैं ।
ये ही क्षण असंयम के
ये क्षण अमर्यादित
-पूजित हो पुण्य हुए ।
मुझको
जो परम्परा प्राप्त हुई
जीवन की
अपने से आगे वह मैंने बढ़ाने को ,
-प्राणों से प्राण रचे
पितृ - ऋण चुकाने को ।
सार्थक
औ ' पूर्णकाम
मेरा यह पिंड हुआ
देह - प्राण धन्य हुए ।
मेरा विचारक मन
संशय से परे
दिव्य भावों से भर गया ।
मेरा जिज्ञासु हृदय
पल - भर को ठिठका
फिर ठहर गया ।
------------------------------- - कवि श्रीकृष्ण शर्मा
( रचनाकाल - 1965 ) पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 45,46,47,48
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