जेठ ने हर शाम लिक्खी
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सूर्य :
इस्पाती धमन - भट्टी ,
हजारों दर्पणों से परावर्तित
रोशनी की कौंधा ,
मुँदने को विवश हैं
आँख पानी की ,
कि जब आँखों -रहित इस रेत में ही
असहनीया चौंध ।
है फटा ज्वालामुखी
जो उड़ रहा है
धूल का जलता बगूला ,
सीझती है देह
ज्यों अदहन चढ़ा हो
और गर्मी : एक चूल्हा ।
झुलसती निर्धूम
हठयोगी -सरीखी दोपहर-भर
वनस्पतियों की हरी पाँखें ,
छाँह से बाहर
पटकती पॉव ,
शूर्पणखा -सरीखी
क्रोध से ये बिफरती झाँकें ।
जेठ ने
हर शाम लिक्खी
आँधियों के नाम ,
है अषाढ़ का यह दूसरा दिन
यक्ष है बैचेन
जाने मेघ कब ले जायेंगे
सन्देश उसका
प्रियतमा के धाम ?
---------------------------- -कवि श्रीकृष्ण शर्मा
(1968) पुस्तक -''अक्षरों के सेतु ''/पृष्ठ -37-38)
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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सूर्य :
इस्पाती धमन - भट्टी ,
हजारों दर्पणों से परावर्तित
रोशनी की कौंधा ,
मुँदने को विवश हैं
आँख पानी की ,
कि जब आँखों -रहित इस रेत में ही
असहनीया चौंध ।
है फटा ज्वालामुखी
जो उड़ रहा है
धूल का जलता बगूला ,
सीझती है देह
ज्यों अदहन चढ़ा हो
और गर्मी : एक चूल्हा ।
झुलसती निर्धूम
हठयोगी -सरीखी दोपहर-भर
वनस्पतियों की हरी पाँखें ,
छाँह से बाहर
पटकती पॉव ,
शूर्पणखा -सरीखी
क्रोध से ये बिफरती झाँकें ।
जेठ ने
हर शाम लिक्खी
आँधियों के नाम ,
है अषाढ़ का यह दूसरा दिन
यक्ष है बैचेन
जाने मेघ कब ले जायेंगे
सन्देश उसका
प्रियतमा के धाम ?
---------------------------- -कवि श्रीकृष्ण शर्मा
(1968) पुस्तक -''अक्षरों के सेतु ''/पृष्ठ -37-38)
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