जब खोलकर आँखें देखूँगा मैं !
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माना
विवश हूँ मैं
और निरुपाय भी ,
किसी गाय की तरह ।
किन्तु
अच्छा नहीं लगता
सिर झुकाये अथवा टिकाये
हाथ पर ठुड्डी बैठ जाऊँ
भय से स्तब्ध किसी अँधेरी खोह में
सिमट कर निस्पन्द ,
किसी ख़रगोश - जैसा ।
अब तक जो खड़े थे
या खड़े हैं मेरे पाँवों पर
अथवा सीढ़ी बना कर मुझे
ऊपर चढ़ने वाले मौक़ापरस्त ,
बन चुके हैं इतने निर्मम और नृशंस
की क़फ़न नोंचने
और बेचने में साँसे तक मेरी
गुरेज़ नहीं है उन्हें ।
जो लोकतंत्र की समूची ताक़त
कोकाकोला की तरह
उतार कर मेदे में
संतोष की लम्बी डकार लेते ,
बैठे हैं मेरी ठठरियों पर अकड़ कर ,
भोगते रहेंगे कब तक बादशाहत
डाकुओं की तरह ।
आख़िर तय है
यह गंदा ख़्वाब ख़त्म हो जायेगा ,
जब खोल कर आँखें
देखूँगा मैं ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1976 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ -93, 94
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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माना
विवश हूँ मैं
और निरुपाय भी ,
किसी गाय की तरह ।
किन्तु
अच्छा नहीं लगता
सिर झुकाये अथवा टिकाये
हाथ पर ठुड्डी बैठ जाऊँ
भय से स्तब्ध किसी अँधेरी खोह में
सिमट कर निस्पन्द ,
किसी ख़रगोश - जैसा ।
अब तक जो खड़े थे
या खड़े हैं मेरे पाँवों पर
अथवा सीढ़ी बना कर मुझे
ऊपर चढ़ने वाले मौक़ापरस्त ,
बन चुके हैं इतने निर्मम और नृशंस
की क़फ़न नोंचने
और बेचने में साँसे तक मेरी
गुरेज़ नहीं है उन्हें ।
जो लोकतंत्र की समूची ताक़त
कोकाकोला की तरह
उतार कर मेदे में
संतोष की लम्बी डकार लेते ,
बैठे हैं मेरी ठठरियों पर अकड़ कर ,
भोगते रहेंगे कब तक बादशाहत
डाकुओं की तरह ।
आख़िर तय है
यह गंदा ख़्वाब ख़त्म हो जायेगा ,
जब खोल कर आँखें
देखूँगा मैं ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1976 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ -93, 94
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