आख़िर फ़र्क़ क्या पड़ा ?
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ऐसी बेरंग
और बदमज़ा
तो नहीं रही कभी
आज जैसी ये ज़िन्दगी
कितना बेमानी रहा
तहख़ानों से निकल कर
खुली हवा में आने का अहसास
पता नहीं
कब हुआ ये
कि हमारे आक़ा
जाते - जाते छोड़ गये
अपने औरस पुत्र हमारे बीच
जो बन बैठे हमारे वैधानिक सरपरस्त
आख़िर फ़र्क़ क्या पड़ा ?
ज़रख़रीद ग़ुलाम
ढोर - डंगर या क़ैदी
फ़र्क़ ही क्या है होने का /
न होने का इनके लिए
घुटन
जो भीतर है
बाहर भी वही तो है
हक़ है
लेकिन नहीं हैं
सुख - सुविधाएँ भोगने का
पाक़ - साफ़ लफ़्ज़ ,लेकिन
उनका ये अर्थ और व्याख्या ?
आख़िर व्याख्याकार तो वे ही हैं ,
जो ढालते हैं -
जुनूनी नारे
जादुई वक्तव्य
इंद्रधनुषी आश्वासन / और
आने वाले दिनों के सुनहरे सपने
जो
पस्तों और खस्ताहालों की बहबूदी
और मुल्क़ की सलामती के नाम पर
कम अक़्ल और बुज़दिलों को बचाते
- और इस तरह सुरक्षित रखते हैं
अपने आपको
आज बन गया है
हमारा सम्पूर्ण तंत्र
झूठ और फ़रेब का अभेध दुर्ग
- खूँखार भेड़ियों के लिए
ठीक वैसे ही जैसे पहले था
ऐसे में -
पर्तों - दर पर्तों और
तरह - तरह के मुखौटों के पीछे से
आती आवाज़ को सुनो
ग़ौर से सुनो
और पहचानो
कि कौन है अपने बीच
- वह ख़ूनी पिशाच ?
ता कि
मुक्ति पाने के लिए उससे
बड़ी ही चालाकी और होशियारी से
पेबस्त कर सको मात्र एक अदद गोली
उनके सीने में
- दहशत की ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1976 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 88, 89, 90
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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ऐसी बेरंग
और बदमज़ा
तो नहीं रही कभी
आज जैसी ये ज़िन्दगी
कितना बेमानी रहा
तहख़ानों से निकल कर
खुली हवा में आने का अहसास
पता नहीं
कब हुआ ये
कि हमारे आक़ा
जाते - जाते छोड़ गये
अपने औरस पुत्र हमारे बीच
जो बन बैठे हमारे वैधानिक सरपरस्त
आख़िर फ़र्क़ क्या पड़ा ?
ज़रख़रीद ग़ुलाम
ढोर - डंगर या क़ैदी
फ़र्क़ ही क्या है होने का /
न होने का इनके लिए
घुटन
जो भीतर है
बाहर भी वही तो है
हक़ है
लेकिन नहीं हैं
सुख - सुविधाएँ भोगने का
पाक़ - साफ़ लफ़्ज़ ,लेकिन
उनका ये अर्थ और व्याख्या ?
आख़िर व्याख्याकार तो वे ही हैं ,
जो ढालते हैं -
जुनूनी नारे
जादुई वक्तव्य
इंद्रधनुषी आश्वासन / और
आने वाले दिनों के सुनहरे सपने
जो
पस्तों और खस्ताहालों की बहबूदी
और मुल्क़ की सलामती के नाम पर
कम अक़्ल और बुज़दिलों को बचाते
- और इस तरह सुरक्षित रखते हैं
अपने आपको
आज बन गया है
हमारा सम्पूर्ण तंत्र
झूठ और फ़रेब का अभेध दुर्ग
- खूँखार भेड़ियों के लिए
ठीक वैसे ही जैसे पहले था
ऐसे में -
पर्तों - दर पर्तों और
तरह - तरह के मुखौटों के पीछे से
आती आवाज़ को सुनो
ग़ौर से सुनो
और पहचानो
कि कौन है अपने बीच
- वह ख़ूनी पिशाच ?
ता कि
मुक्ति पाने के लिए उससे
बड़ी ही चालाकी और होशियारी से
पेबस्त कर सको मात्र एक अदद गोली
उनके सीने में
- दहशत की ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1976 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 88, 89, 90
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