कहाँ है सूर्यमुखी ?
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हे प्रभु !
कहाँ है सूर्यमुखी
मेरी आकांक्षाओं का
वह प्रकाश - पिण्ड कहाँ है
जिसके आभाव में
अंधी हैं मेरी आँखें
बहरे हो गये हैं मेरे कान
जिससे बिछुड़ कर
प्रताड़नाओं और अवमाननाओं के तीव्र स्वरों में
मेरी वाणी मूक हो गयी है
लूले हो गये हैं हाथ
और पाँव लंगड़े
विलगाव होते ही जिससे
मेरे अदम्य उत्साह
अपराजेय पौरुष
और अनंत शक्ति का वह स्रोत /जो
मेरी धमनियों और शिराओं में
बहता था अजस्र गति से
सूख गया है ।
मेरे प्रयत्न
पीड़ित हैं पक्षाघात से
और भाग्य क्षय से ग्रसित
धूलि -धूसरित है
रोली मेरे मस्तक की
काट दिये गये हैं डैने मेरी उड़ान के
और मैं
बंदी हूँ ध्रुव प्रदेश में
दीर्घकालीन रात्रि का
दिन - रात के इस जीवन - व्यापी युद्ध में
चारों और शत्रुओं से घिरी ।
ज्ञात नहीं है मुझे
मस्तिष्क है या नहीं
ह्रदय है या नहीं मेरे पास
सोच - समझ अनुभूति - संवेदन कहाँ हैं सब ?
शायद एक यंत्र - मात्र रह गया हूँ मैं
जिसमें एक विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया होती है
एक विशेष बटन दबाये जाने पर
मुखापेक्षी हूँ मैं
किसी साधन का
पर शीश के ऊपर हैं सप्तर्षि
जिन्हें नीचे नहीं उतार पा रहा मैं
लाख सिर पटक कर भी |
ओझल है ध्रुवतारा
और दिशा - ज्ञान भ्रम में है
घूम रहे हैं तेजी से अनगिनत नक्षत्र - पिण्ड
किसी आकर्षण की परिधि में
पर छिटका हुआ
गुरुत्वाकर्षण से मैं
किस अबूझे चक्रवात
किस अपरिचित धूमकेतु ने जकड़ लिया हूँ |
उठ खड़ी हुई है
संघर्षों की ऐसी भीड़
जो रोंदती चली जायेगी
मेरे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को
और सांसें तोड़ता हुआ वर्तमान
भविष्य के अंधकार में
आँखेँ मींच लेगा |
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1966 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ-63, 64. 65
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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हे प्रभु !
कहाँ है सूर्यमुखी
मेरी आकांक्षाओं का
वह प्रकाश - पिण्ड कहाँ है
जिसके आभाव में
अंधी हैं मेरी आँखें
बहरे हो गये हैं मेरे कान
जिससे बिछुड़ कर
प्रताड़नाओं और अवमाननाओं के तीव्र स्वरों में
मेरी वाणी मूक हो गयी है
लूले हो गये हैं हाथ
और पाँव लंगड़े
विलगाव होते ही जिससे
मेरे अदम्य उत्साह
अपराजेय पौरुष
और अनंत शक्ति का वह स्रोत /जो
मेरी धमनियों और शिराओं में
बहता था अजस्र गति से
सूख गया है ।
मेरे प्रयत्न
पीड़ित हैं पक्षाघात से
और भाग्य क्षय से ग्रसित
धूलि -धूसरित है
रोली मेरे मस्तक की
काट दिये गये हैं डैने मेरी उड़ान के
और मैं
बंदी हूँ ध्रुव प्रदेश में
दीर्घकालीन रात्रि का
दिन - रात के इस जीवन - व्यापी युद्ध में
चारों और शत्रुओं से घिरी ।
ज्ञात नहीं है मुझे
मस्तिष्क है या नहीं
ह्रदय है या नहीं मेरे पास
सोच - समझ अनुभूति - संवेदन कहाँ हैं सब ?
शायद एक यंत्र - मात्र रह गया हूँ मैं
जिसमें एक विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया होती है
एक विशेष बटन दबाये जाने पर
मुखापेक्षी हूँ मैं
किसी साधन का
पर शीश के ऊपर हैं सप्तर्षि
जिन्हें नीचे नहीं उतार पा रहा मैं
लाख सिर पटक कर भी |
ओझल है ध्रुवतारा
और दिशा - ज्ञान भ्रम में है
घूम रहे हैं तेजी से अनगिनत नक्षत्र - पिण्ड
किसी आकर्षण की परिधि में
पर छिटका हुआ
गुरुत्वाकर्षण से मैं
किस अबूझे चक्रवात
किस अपरिचित धूमकेतु ने जकड़ लिया हूँ |
उठ खड़ी हुई है
संघर्षों की ऐसी भीड़
जो रोंदती चली जायेगी
मेरे सम्पूर्ण व्यक्तित्व को
और सांसें तोड़ता हुआ वर्तमान
भविष्य के अंधकार में
आँखेँ मींच लेगा |
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1966 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ-63, 64. 65
sksharmakavitaye.blogspot.in
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