कल की तरह
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आज भी
मन नहीं लगेगा ,
कल की तरह ।
आज भी
आकाश नहीं है प्रकृतिस्थ ,
मटमैलापन नत्थी है
धरती का
उससे ।
सिर पर सवार हवा
साँस रोक कर
डाल रही है दबाव ,
और सशंकित कौए कर रहे हैं
कॉँव -कॉव।
इस गाँव में
उरावों के नहीं है
ओझा या बैगा । फिर
आधी रात के निचाट अँधेरे में
जागेगा जब ''ड्रेकुला ''
-ह्रदय के रक्त का प्यासा -
तुम्हारे बिना अकेले मुझसे
वह कैसे सधेगा ,
कल की तरह ।
(१९६६) अक्षरों के सेतु /२७
कवि श्रीकृष्ण शर्मा
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आज भी
मन नहीं लगेगा ,
कल की तरह ।
आज भी
आकाश नहीं है प्रकृतिस्थ ,
मटमैलापन नत्थी है
धरती का
उससे ।
सिर पर सवार हवा
साँस रोक कर
डाल रही है दबाव ,
और सशंकित कौए कर रहे हैं
कॉँव -कॉव।
इस गाँव में
उरावों के नहीं है
ओझा या बैगा । फिर
आधी रात के निचाट अँधेरे में
जागेगा जब ''ड्रेकुला ''
-ह्रदय के रक्त का प्यासा -
तुम्हारे बिना अकेले मुझसे
वह कैसे सधेगा ,
कल की तरह ।
(१९६६) अक्षरों के सेतु /२७
कवि श्रीकृष्ण शर्मा
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