तुम बिन अधूरा मैं !
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ओ मेरे परिचय ,
मैं तुमसे बिछुड़ करके
बन गया स्वयं को ही
आज एक अजनबी हूँ ।
मेरे दृग ,
दृष्टि की तुम्हारी परिधियों से
दूर हुआ में
सब कुछ देख कुछ न देखता ।
ओ मेरे स्वर ,
तुमसे वंचित मैं आज यहाँ
सब कुछ सुन रहा
मगर कुछ न सुनायी पड़ता ।
शब्दों का बोझ लिये
मैं अब भी शब्दहीन
- अर्थ नहीं बन पाया ।
आत्मलीन होकर भी
भावों के अँधियारे
गलियारों के उन
गुलाबों की छवि को मैं
इस क्षण तक
अपने इन गीतों के रेशम में
- बांध नहीं पाया ।
अब भी -
अतीत के
वे बिम्ब पारदर्शी सब
तुमने जो
मेरे इन प्राणों पर छोड़ दिये
- बेहद ही उजले हैं ,
उनके वे रंग
अभी धुँधले पड़े नहीं !
हरदम -
वे पगडंडी ,
सीढ़ी के वे घुमाव ,
घर के कोने - अँतरे ,
ऑंगन की तुलसी ,
दीवारों के लेखचित्र ,
स्नेह - भरी आँखें वे ,
ममता से बढ़ी बाँह ,
आशंकित उत्सुकता ,
भार बना संयम ,
- वे सब कुछ हैं अब तक भी
मेरे संग यहीं कहीं ।
उन गुज़री राहों में
मेरा मन अटका है ,
और पाँव घिसट रहे
मौजूदा राहों में ।
तुम बिन
मैं आधा हूँ
तुम बिन अधूरा मैं
कब तक यूँ भटकूँगा
लिये हुए एक समूचा जंगल
- बाँहों में ?
बार - बार मर कर भी
सिरजन की पीड़ा को
साँसों में ढोऊँगा ,
बीते के गालों पर
मुँह धर कर रोऊँगा ,
- मैं कब तक ?
कैसा ये खालीपन
कैसा ये भारीपन
मुझको जो अनुभावित
होता है प्रिय तुम बिन !
लगता है -
मन में कुछ
कहीं स्यात् टूट गया ,
जीवन का एक छोर
दूर कहीं छूट गया ,
जिससे अब भेंट नहीं
होगी शायद कभी !
- कवि श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल -1966 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 60, 61, 62
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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ओ मेरे परिचय ,
मैं तुमसे बिछुड़ करके
बन गया स्वयं को ही
आज एक अजनबी हूँ ।
मेरे दृग ,
दृष्टि की तुम्हारी परिधियों से
दूर हुआ में
सब कुछ देख कुछ न देखता ।
ओ मेरे स्वर ,
तुमसे वंचित मैं आज यहाँ
सब कुछ सुन रहा
मगर कुछ न सुनायी पड़ता ।
शब्दों का बोझ लिये
मैं अब भी शब्दहीन
- अर्थ नहीं बन पाया ।
आत्मलीन होकर भी
भावों के अँधियारे
गलियारों के उन
गुलाबों की छवि को मैं
इस क्षण तक
अपने इन गीतों के रेशम में
- बांध नहीं पाया ।
अब भी -
अतीत के
वे बिम्ब पारदर्शी सब
तुमने जो
मेरे इन प्राणों पर छोड़ दिये
- बेहद ही उजले हैं ,
उनके वे रंग
अभी धुँधले पड़े नहीं !
हरदम -
वे पगडंडी ,
सीढ़ी के वे घुमाव ,
घर के कोने - अँतरे ,
ऑंगन की तुलसी ,
दीवारों के लेखचित्र ,
स्नेह - भरी आँखें वे ,
ममता से बढ़ी बाँह ,
आशंकित उत्सुकता ,
भार बना संयम ,
- वे सब कुछ हैं अब तक भी
मेरे संग यहीं कहीं ।
उन गुज़री राहों में
मेरा मन अटका है ,
और पाँव घिसट रहे
मौजूदा राहों में ।
तुम बिन
मैं आधा हूँ
तुम बिन अधूरा मैं
कब तक यूँ भटकूँगा
लिये हुए एक समूचा जंगल
- बाँहों में ?
बार - बार मर कर भी
सिरजन की पीड़ा को
साँसों में ढोऊँगा ,
बीते के गालों पर
मुँह धर कर रोऊँगा ,
- मैं कब तक ?
कैसा ये खालीपन
कैसा ये भारीपन
मुझको जो अनुभावित
होता है प्रिय तुम बिन !
लगता है -
मन में कुछ
कहीं स्यात् टूट गया ,
जीवन का एक छोर
दूर कहीं छूट गया ,
जिससे अब भेंट नहीं
होगी शायद कभी !
- कवि श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल -1966 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 60, 61, 62
sksharmakavitaye.blogspot.in
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