पतझर
-----------
(1 )
शाखों से पात झरे
तरुवर के तले हुए ढेर ,
दक्खिनी झकोरों ने यहाँ - वहाँ
सब - के - सब हैं दिये बिखेर ।
( 2 )
धूल उड़ी ,
सूनापन बेआवाज़ घुस आया ,
-जैसे हो चोर ।
उलट - पुलट
उठा - धरी कर झटपट
दुःख औ ' अभावों की
खोल दी पिटारी खट्ट ,
फिर हुई उदासी
इन प्राणों पर भारी है
-तोड़ी हर पोर ।
लगता है -
परिणति से पहले ही छूट गया
-सपनों का सतरंगी छोर ।
( 3 )
खड़ - खड़ - खड़
चर - मर - मर
पतझर की काया पर
दौड़ गया है कोई
अचक - पचक पग धर कर ,
सन्नाटे का हियरा
भय से भर
काँप गया धड़ - धड़ - धड़ ,
चीख़ उठा वनपाखी
गूँज गया व्याकुल स्वर ।
पर यह ख़मोशी
जो अब तक भी अकथ रही ,
नहीं कही शब्दों ने
भावों ने नहीं गही ।
अनबूझी
अनचीन्ही पर्ते हैं ,
जीवन पर
नाजायज़ औ ' अवैध शर्तें हैं ।
आह
यह नपुंसक तम
लिपटाये चाँदनियाँ
पत्रहीन डालों के पीछे से झाँक रहीं
व्यथा - विसुध चंदा की आँखड़ियां ।
ठण्डापन लोहे - सा
शव - जैसा निश्चल तन
ऊष्मा से रहित -
एक निरावेग आलिंगन ।
लावारिस ठूँठ ,
मगर यह असह अनैतिकता ,
बददिमाग बाहों में -
सिसक रही भावुकता ।
( 4 )
जर्जर औ 'शुष्क गात ,
स्नेह और ऊष्मा से रहित पात ,
-असमय ही सूखे हैं ।
गर्द के गुबारों में -
किस त्रिशंकु - जैसे ये
-लटके आधारहीन
लक्ष्यहीन उड़ते हैं
भटके हैं तट से मझधारो में ।
आह , ये हजारोँ ही
लाखों क्यों परवश हैं ,
थके और हारे हैं जीवन में
-पवन के थपेड़ों में -
पड़े हुए बेबस हैं ,
उखड़े हैँ ,
टूटे हैं ,
असफल हैं
महज़ क्योंकि मौक़े पर चूके हैं ।
सच कह दूँ
जीवन का वर्तमान बोझीला ,
आँसुओं से गीला ।
अनजानी स्थितियाँ
औ ' वातावरण दुश्मन - से
दुरभिसंधि रच -रच कर उत्पीड़ित करते हैं ,
बेमानी घृणा , द्वेष ,ग्लानि और पीड़ा से
रिक्त हुए सुखमय की
दुखद पूर्ति करते हैं ।
पर यह तो पर्दा है भावी पर पड़ा हुआ ,
खिल - खिल हँसता जो -
उस वसंत को ढँक कर खड़ा हुआ ।
निरावरण नहीं हुआ अभी पूर्ण संशय है
तभी भीत ओ ' कम्पित किये हुए हमको जो
वत पतझर का भय है ।
------------------------------------------------------ -कवि श्रीकृष्ण शर्मा
( रचनाकाल - 1965 ) पुस्तक -''अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 41,42,43,44
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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(1 )
शाखों से पात झरे
तरुवर के तले हुए ढेर ,
दक्खिनी झकोरों ने यहाँ - वहाँ
सब - के - सब हैं दिये बिखेर ।
( 2 )
धूल उड़ी ,
सूनापन बेआवाज़ घुस आया ,
-जैसे हो चोर ।
उलट - पुलट
उठा - धरी कर झटपट
दुःख औ ' अभावों की
खोल दी पिटारी खट्ट ,
फिर हुई उदासी
इन प्राणों पर भारी है
-तोड़ी हर पोर ।
लगता है -
परिणति से पहले ही छूट गया
-सपनों का सतरंगी छोर ।
( 3 )
खड़ - खड़ - खड़
चर - मर - मर
पतझर की काया पर
दौड़ गया है कोई
अचक - पचक पग धर कर ,
सन्नाटे का हियरा
भय से भर
काँप गया धड़ - धड़ - धड़ ,
चीख़ उठा वनपाखी
गूँज गया व्याकुल स्वर ।
पर यह ख़मोशी
जो अब तक भी अकथ रही ,
नहीं कही शब्दों ने
भावों ने नहीं गही ।
अनबूझी
अनचीन्ही पर्ते हैं ,
जीवन पर
नाजायज़ औ ' अवैध शर्तें हैं ।
आह
यह नपुंसक तम
लिपटाये चाँदनियाँ
पत्रहीन डालों के पीछे से झाँक रहीं
व्यथा - विसुध चंदा की आँखड़ियां ।
ठण्डापन लोहे - सा
शव - जैसा निश्चल तन
ऊष्मा से रहित -
एक निरावेग आलिंगन ।
लावारिस ठूँठ ,
मगर यह असह अनैतिकता ,
बददिमाग बाहों में -
सिसक रही भावुकता ।
( 4 )
जर्जर औ 'शुष्क गात ,
स्नेह और ऊष्मा से रहित पात ,
-असमय ही सूखे हैं ।
गर्द के गुबारों में -
किस त्रिशंकु - जैसे ये
-लटके आधारहीन
लक्ष्यहीन उड़ते हैं
भटके हैं तट से मझधारो में ।
आह , ये हजारोँ ही
लाखों क्यों परवश हैं ,
थके और हारे हैं जीवन में
-पवन के थपेड़ों में -
पड़े हुए बेबस हैं ,
उखड़े हैँ ,
टूटे हैं ,
असफल हैं
महज़ क्योंकि मौक़े पर चूके हैं ।
सच कह दूँ
जीवन का वर्तमान बोझीला ,
आँसुओं से गीला ।
अनजानी स्थितियाँ
औ ' वातावरण दुश्मन - से
दुरभिसंधि रच -रच कर उत्पीड़ित करते हैं ,
बेमानी घृणा , द्वेष ,ग्लानि और पीड़ा से
रिक्त हुए सुखमय की
दुखद पूर्ति करते हैं ।
पर यह तो पर्दा है भावी पर पड़ा हुआ ,
खिल - खिल हँसता जो -
उस वसंत को ढँक कर खड़ा हुआ ।
निरावरण नहीं हुआ अभी पूर्ण संशय है
तभी भीत ओ ' कम्पित किये हुए हमको जो
वत पतझर का भय है ।
------------------------------------------------------ -कवि श्रीकृष्ण शर्मा
( रचनाकाल - 1965 ) पुस्तक -''अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 41,42,43,44
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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