साँझ : पुनरावृति अतीत की
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फिर साँझ :
अंधरे का आयतन बढ़ा प्रतिपल ,
सूरज जुगनू - सा रेंग गया अँधियारे में
मिट गई अकेली बची एक लाचार किरण ,
- कुछ कसक गया मन में ,
- कुछ तन में काँप गया ।
दिन के कोलाहल में
न सुन पड़ा था स्वर जो
सुन पड़ा सौ गुना बड़ा कान में गूँज गया ,
- सौ गुना प्राण में गूँज गया ,
जो भीड़ - भाड़ के महासिंधु की गहराई में डूबा था ,
- मन का दुश्मन ।
फिर साँझ :
दिवस की चहल - पहल को ठेल
उदासी घुस आयी गलियारे में ,
औ ' बैठ गयी मेरे सम्मुख मेरे कमरे के द्वारे में ,
मेरा एकाकीपन बढ़कर हो गया और सौ गुना बड़ा
जिससे खोयापन और चिढ़ा ,
- कुछ खटक गया मन में ,
- शायद तन सूँघ अचानक साँप गया ।
यह वर्तमान ,
हर क्षण अतीत में समा रहा रहा ,
हर क्षण बीता पल और पास आ रहा ,
… पास आ रहा … स्यात् यह दर्पण है ,
… यह दर्पण है … गुज़रे अतीत का ,
… उस अतीत का …
जब हमने - मैंने - तुमने …
मिल कर सपनों के शिशुओं को था जन्म दिया ,
सबकी आँखों से छिप - छिप कर पाला उनको ,
मन के उन कोमल टुकड़ों को
अपने स्नेह के सहज सपनीले मुखड़ों को
धड़कन में बसा लिया ,
- जी भर कर प्यार किया ।
पर जाने कब
कैसे उनके तोतले भाव
हम दोनों के अनजाने ही
अस्फुट शब्दों में ध्वनित हुए ,
हम दोनों के अनजाने ही ,
जग की अभ्यस्त निगाहों ने
दो जीवित स्वर पहचान लिये ,
हम दोनों के अनजाने ही षड्यंत्र रचे ,
जब तक होते सतर्क तब - तक हम अलग किये ,
दुधमुँहे और मासूम स्वप्न - शिशु विलग किये ।
सूने एकाकी प्रहरों में
उनके अबोध औ ' डूबे स्वर
कर पार समय की दूरी जब - जब आते हैं
- तब - तब मुझको बेहद उदास
- बेहद अनमना बनाते हैं ।
फिर साँझ :
अतीतों के तन में
घुलता जाता है वर्तमान ,
दर्पण के सौ - सौ टूक प्राण में समा गये ,
सुधियों के उस देश में छूटे शिशु - स्वप्नों के
कोलाहल - भीड़भाड़ - हलचल को धकिया कर
सौ गुनी शक्ति से स्वर कानों को गुँजा गये
- मेरा तन
बीते के आँचल में काँप गया ,
- कुछ सिसक गया मन में
- स्मृतियों में खोया मैं ।
- कवि श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1966) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 55, 56, 57
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