अँधेरे की पहुँच
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बॉंध दिया है
ले जा कर एक सिरा
उस पहाड़ी से किरणों का
-संध्या ने ।
और
दिन भर पहना था
अब फाड़ कर फेंक दिया है
उस धूप को
-दिन ने ।
पड़े रह गये हैं
छोटे - बड़े टुकड़े उसके
इधर - उधर
चल रहा है अँधेरा ख़ामोशी से ।
पल - पल बढ़ते
इस अंधकार की गिरफ्त से बचने के लिए
पक्षी , ढोर , बालक , मेहनतकश
तेजी से लौट रहे हैं सभी
उजाले की ओर
मैंने भी माचिस में सुरक्षित रखी रोशनी
जलाली है लालटेन में
ताकि -
दूर रह सकूँ सुबह तक
अँधेरे की पहुँच से
मैं |
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{१९६७) पुस्तक -''अक्षरों के सेतु ''/पृष्ठ -३५
shrikrishnasharma.wordpress.com
sksharmakavitaye.blogspot.in कवि श्रीकृष्ण शर्मा
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बॉंध दिया है
ले जा कर एक सिरा
उस पहाड़ी से किरणों का
-संध्या ने ।
और
दिन भर पहना था
अब फाड़ कर फेंक दिया है
उस धूप को
-दिन ने ।
पड़े रह गये हैं
छोटे - बड़े टुकड़े उसके
इधर - उधर
चल रहा है अँधेरा ख़ामोशी से ।
पल - पल बढ़ते
इस अंधकार की गिरफ्त से बचने के लिए
पक्षी , ढोर , बालक , मेहनतकश
तेजी से लौट रहे हैं सभी
उजाले की ओर
मैंने भी माचिस में सुरक्षित रखी रोशनी
जलाली है लालटेन में
ताकि -
दूर रह सकूँ सुबह तक
अँधेरे की पहुँच से
मैं |
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{१९६७) पुस्तक -''अक्षरों के सेतु ''/पृष्ठ -३५
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