मलवे का एक ढेर
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उबड़ - खाबड़ को कुचल कर ,
कहाँ आ गया है -
बढ़ता हुआ शहर ?
- आड़ में ,
- पहाड़ में ।
मैनें तो कुछ नहीं किया ,
बैठा ही रहा ,
मगर फ़ासला कट गया है ।
कुछ भी तो नहीं कहा ,
पानी भी नहीं पिया ,
मगर राह में आया
- दरिया हट गया है ,
डट गया है
कोई कुत्ता
हड़बड़ा कर सामने ,
जंगल आ गया है
दूर से आती हुई
पहाड़ियों का हाथ थामने ,
और
खड़ा है
कुछ पेड़ों के सहारे ।
जमीन से लगीं
जमुहाती झाड़ियाँ
मारती हैं खिसिया कर
चिड़ियों के ढेले ,
पगडंडियों को पकड़ कर
चल रहे हैं खेत
और
पथरीली चट्टानों ने
पीस कर धर दिया है
रेत ।
उकताये हुए
आसमान से कानाफूँसी करते
सागौन और बरगद
इकलसुहा इमली के ठूँठ को
चिढ़ाते हैं मुँह
कभी - कभी ।
विवशता में
सूखे तालाब की बदनसीबी पर
झींकती घास ,
सिर उठा - उठा कर
टोहते धान
पटकते हैं पीठ से
हवा को ।
सामाधिस्थ है -
पत्थर पर
उभरा संसार
अपनी नियति के
दुर्वह शव को उठाये ,
अर्थहीन इयत्ता के
अप्रिय प्रश्नों की खरौंच ,
दो टूक उत्तर के लिए
बार - बार आवाज़ लगाता
सोच ,
समय से हारा
जिंदगी का यह बिखरा खण्डहर ,
समेटे है -
टूटन - घुटन - उत्पीड़न ,
पत्थरों में लड़खड़ाता है
और पत्थरों में
घुट - घुट कर मर जाता है ।
ठण्डाई आकांक्षाओं
बुझे संतापों
अपाहिज सौंदर्य
और कठियाई संवेदनाओं
- में से भी कुछ टीसता है ।
खीझता है बियाबान
मनुष्य के अहम् पर ,
स्वयं पर आये
गुमनाम संकटों की सलीब पर टँगा ,
अपने ही
रक्त में रंगा हुआ
यह अकेलेपन का अहसास ,
- नंगा सो रहा है ,
वर्तमान की जाँघ पर
नपुंसक मलवे का एक ढेर ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1973 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 69, 70, 71
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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उबड़ - खाबड़ को कुचल कर ,
कहाँ आ गया है -
बढ़ता हुआ शहर ?
- आड़ में ,
- पहाड़ में ।
मैनें तो कुछ नहीं किया ,
बैठा ही रहा ,
मगर फ़ासला कट गया है ।
कुछ भी तो नहीं कहा ,
पानी भी नहीं पिया ,
मगर राह में आया
- दरिया हट गया है ,
डट गया है
कोई कुत्ता
हड़बड़ा कर सामने ,
जंगल आ गया है
दूर से आती हुई
पहाड़ियों का हाथ थामने ,
और
खड़ा है
कुछ पेड़ों के सहारे ।
जमीन से लगीं
जमुहाती झाड़ियाँ
मारती हैं खिसिया कर
चिड़ियों के ढेले ,
पगडंडियों को पकड़ कर
चल रहे हैं खेत
और
पथरीली चट्टानों ने
पीस कर धर दिया है
रेत ।
उकताये हुए
आसमान से कानाफूँसी करते
सागौन और बरगद
इकलसुहा इमली के ठूँठ को
चिढ़ाते हैं मुँह
कभी - कभी ।
विवशता में
सूखे तालाब की बदनसीबी पर
झींकती घास ,
सिर उठा - उठा कर
टोहते धान
पटकते हैं पीठ से
हवा को ।
सामाधिस्थ है -
पत्थर पर
उभरा संसार
अपनी नियति के
दुर्वह शव को उठाये ,
अर्थहीन इयत्ता के
अप्रिय प्रश्नों की खरौंच ,
दो टूक उत्तर के लिए
बार - बार आवाज़ लगाता
सोच ,
समय से हारा
जिंदगी का यह बिखरा खण्डहर ,
समेटे है -
टूटन - घुटन - उत्पीड़न ,
पत्थरों में लड़खड़ाता है
और पत्थरों में
घुट - घुट कर मर जाता है ।
ठण्डाई आकांक्षाओं
बुझे संतापों
अपाहिज सौंदर्य
और कठियाई संवेदनाओं
- में से भी कुछ टीसता है ।
खीझता है बियाबान
मनुष्य के अहम् पर ,
स्वयं पर आये
गुमनाम संकटों की सलीब पर टँगा ,
अपने ही
रक्त में रंगा हुआ
यह अकेलेपन का अहसास ,
- नंगा सो रहा है ,
वर्तमान की जाँघ पर
नपुंसक मलवे का एक ढेर ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1973 ) , पुस्तक - '' अक्षरों के सेतु '' / पृष्ठ - 69, 70, 71
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