मेरी आँखों में हैं आँसू
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मेरी आँखों में है आँसू और तुम्हारे होंठ हँसी है ,
जैसे कोई चंदनगंधा नागों ने पाश में कसी है ।
कैसी सुरुचि कि हमने गमले रखे कैक्टस के खिड़की पर ,
किन्तु झाड़ियों तक जा पहुँची अपने आँगन की तुलसी है ।
दुनियाँ क्या है , सिर्फ सभ्यता का ही आकर्षक विज्ञापन ,
किन्तु आदमी आदिम युग की तरह आज भी तो वहशी है ।
बुझती साँसों में न आँच अब यहाँ किसी को पिघलाने की ,
जहाँ कि चढ़ती हुई उमर ही कंदराती शाम ने डाँसी है ।
कल तक मैं वह सब जिस पर सदा बैठते ही आये थे ,
किन्तु आज सब के दिमाग़ में आकर बैठी वह कुर्सी है ।
यहाँ पड़ी है किसको , पीड़ा जो कि दूसरों की सहलाये ,
जहाँ सिर्फ़ बदले की ख़ातिर यह रस्मी मातमपुरसी है ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1963 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 67
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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मेरी आँखों में है आँसू और तुम्हारे होंठ हँसी है ,
जैसे कोई चंदनगंधा नागों ने पाश में कसी है ।
कैसी सुरुचि कि हमने गमले रखे कैक्टस के खिड़की पर ,
किन्तु झाड़ियों तक जा पहुँची अपने आँगन की तुलसी है ।
दुनियाँ क्या है , सिर्फ सभ्यता का ही आकर्षक विज्ञापन ,
किन्तु आदमी आदिम युग की तरह आज भी तो वहशी है ।
बुझती साँसों में न आँच अब यहाँ किसी को पिघलाने की ,
जहाँ कि चढ़ती हुई उमर ही कंदराती शाम ने डाँसी है ।
कल तक मैं वह सब जिस पर सदा बैठते ही आये थे ,
किन्तु आज सब के दिमाग़ में आकर बैठी वह कुर्सी है ।
यहाँ पड़ी है किसको , पीड़ा जो कि दूसरों की सहलाये ,
जहाँ सिर्फ़ बदले की ख़ातिर यह रस्मी मातमपुरसी है ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1963 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 67
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