ख़रीफ़ का गीत
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सिर से ऊँचा खड़ा बाजरा , बाँध मुरैठा मका खड़ी ,
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी |
पाँव सरपतों पर धर करके
हवा चल रही है सर - सर ,
केतु फहरते हैं काँसों के
बाँस रहे हैं साँसें भर ;
पाँव गड़ाती दूब जा रही , किस प्रीतम के गाँव बढ़ी |
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी |
सींग उगा करके सिंघाड़ा
बिरा रह मुँह बैलों का
झाड़ और झंखाड़ खड़े हैं
राह रोक कर गैलों का ;
पोखर की काँपती सतह पर , बूँदों की सौ थाप पड़ीं |
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी |
घुइयाँ बैठी छिपी भूमि में
पातों की ये ढाल लिये ,
लेकिन अपनी आँखों में है
अरहर ढेर सवाल लिये ;
फिर भी सत्यानाशी के मन में हैं अनगिन फाँस गड़ी |
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी |
पके हुए धानों की फैली
ये जरतारी साड़ी है ,
खण्डहर की दीवारों पर ये
काईदार किनारी है ;
छोटे - बड़े कुकुरमुत्तों ने पहनी है सिर पर पगड़ी |
लगी ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी |
ले करके आधार पेड़ का
खड़ी हुई लंगड़ी बेलें ,
निरबंसी बंजर के घर में
बेटे - ही - बेटे खेलें ;
बरखा क्या आयी , धरती पर वरदानों की लगी झड़ी |
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी |
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1957 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 41, 42
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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सिर से ऊँचा खड़ा बाजरा , बाँध मुरैठा मका खड़ी ,
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी |
पाँव सरपतों पर धर करके
हवा चल रही है सर - सर ,
केतु फहरते हैं काँसों के
बाँस रहे हैं साँसें भर ;
पाँव गड़ाती दूब जा रही , किस प्रीतम के गाँव बढ़ी |
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी |
सींग उगा करके सिंघाड़ा
बिरा रह मुँह बैलों का
झाड़ और झंखाड़ खड़े हैं
राह रोक कर गैलों का ;
पोखर की काँपती सतह पर , बूँदों की सौ थाप पड़ीं |
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी |
घुइयाँ बैठी छिपी भूमि में
पातों की ये ढाल लिये ,
लेकिन अपनी आँखों में है
अरहर ढेर सवाल लिये ;
फिर भी सत्यानाशी के मन में हैं अनगिन फाँस गड़ी |
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी |
पके हुए धानों की फैली
ये जरतारी साड़ी है ,
खण्डहर की दीवारों पर ये
काईदार किनारी है ;
छोटे - बड़े कुकुरमुत्तों ने पहनी है सिर पर पगड़ी |
लगी ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी |
ले करके आधार पेड़ का
खड़ी हुई लंगड़ी बेलें ,
निरबंसी बंजर के घर में
बेटे - ही - बेटे खेलें ;
बरखा क्या आयी , धरती पर वरदानों की लगी झड़ी |
लगीं ज्वार के हाथों में हैं , हीरों की सात सौ लड़ी |
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1957 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 41, 42
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बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यबाद .............|
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