ज़िन्दगी
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ज़िन्दगी ऐसी कि जैसे हो कोई मैला बिछौना ,
या कि चूल्हे पर चढ़ा जैसे कोई फूटा भगौना ;
या किसी ने भीड़ वाले और चलते रास्ते पर -
चाट कर जैसे दिया हो फैंक कोई व्यर्थ दौना ।
ज़िन्दगी ऐसी कि जैसे डबडबाती आँख कोई ,
धूल से जैसे अँटी हो बन्द घर की ताख कोई ;
या किसी मजदूर - बस्ती के धुँए में झींकती -सी -
रोशनी को ज्यों दबोचे हो अँधेरा पाख कोई ।
ज़िन्दगी ऐसी कि जैसे गाँव कोई पत्थरों का ,
या अजूबों के शहर में हो मोहल्ला सिरफिरों का ;
या कि आदमख़ोर जत्थों से निहत्था जूझता ये -
जंगलों से जा रहा जो काफ़िला कुछ अक्षरों का ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1963 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 66
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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ज़िन्दगी ऐसी कि जैसे हो कोई मैला बिछौना ,
या कि चूल्हे पर चढ़ा जैसे कोई फूटा भगौना ;
या किसी ने भीड़ वाले और चलते रास्ते पर -
चाट कर जैसे दिया हो फैंक कोई व्यर्थ दौना ।
ज़िन्दगी ऐसी कि जैसे डबडबाती आँख कोई ,
धूल से जैसे अँटी हो बन्द घर की ताख कोई ;
या किसी मजदूर - बस्ती के धुँए में झींकती -सी -
रोशनी को ज्यों दबोचे हो अँधेरा पाख कोई ।
ज़िन्दगी ऐसी कि जैसे गाँव कोई पत्थरों का ,
या अजूबों के शहर में हो मोहल्ला सिरफिरों का ;
या कि आदमख़ोर जत्थों से निहत्था जूझता ये -
जंगलों से जा रहा जो काफ़िला कुछ अक्षरों का ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1963 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 66
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सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (02-03-2015) को "बदलनी होगी सोच..." (चर्चा अंक-1905) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद मयंक जी |
ReplyDeleteजिंदगी के अनेक पहलुओं को बाखूबी लिखा है ...
ReplyDeleteधन्यवाद दिगंबर जी |
Deleteअभावों का सून्दर भाव
ReplyDeleteधन्यवाद रेखा जी |
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Deleteबहुत ही सुंदर भावों सजी रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद कहकंशा जी |
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