समय साँप के खाये - जैसा
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अगहन ठिठुर रहा , पाले ने
पियरायी है साँझ सिंदूरी ।
हँसी - खुशी गरमाहट को
ठंडक ने गहरे दफनाया ,
चहल - पहल ही नहीं , सभी को
सन्नाटे ने सुन्न बनाया ;
सूरज अभी - अभी डूबा पर ,
धूप हुई मृग की कस्तूरी ।
अगहन ठिठुर रहा , पाल ने
पियरायी है साँझ सिंदूरी ।
कुहरे के मोटे परदे के
पार नहीं जाती हैं आँखें ,
किन्तु टँगी रह गयीं दृस्टि की
चौखट पर पेड़ों की शाखें ;
समय साँप के खाये - जैसा ,
कैसे कटे रात की दूरी ।
अगहन ठिठुर रहा , पाले ने
पियारायी हैं साँझ सिंदूरी ।
सत्याग्रह करती हैं , मन के
द्वारे अनागता इच्छाएँ ,
कब तक अँजुरी भर सपनों से
हम अपने अभाव दफनाएं ;
चढ़ी जिन्दगी के खाते में
सिर्फ अँधेरे की मजबूरी ।
अगहन ठिठुर रहा , पाले ने
पियरायी है साँझ सिंदूरी ।
लेकिन अब भी तो कोल्हू पर
निशि भर खूब जाग होती है ,
सच है , वहीं लोग जुड़ते हैं
जहाँ कि एक आग होती है ;
यही आग तो काम करती है
मानव से मानव की दूरी ।
अगहन ठिठुर रहा , पाले ने
पियरायी है साँझ सिंदूरी ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1960 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 57, 58
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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अगहन ठिठुर रहा , पाले ने
पियरायी है साँझ सिंदूरी ।
हँसी - खुशी गरमाहट को
ठंडक ने गहरे दफनाया ,
चहल - पहल ही नहीं , सभी को
सन्नाटे ने सुन्न बनाया ;
सूरज अभी - अभी डूबा पर ,
धूप हुई मृग की कस्तूरी ।
अगहन ठिठुर रहा , पाल ने
पियरायी है साँझ सिंदूरी ।
कुहरे के मोटे परदे के
पार नहीं जाती हैं आँखें ,
किन्तु टँगी रह गयीं दृस्टि की
चौखट पर पेड़ों की शाखें ;
समय साँप के खाये - जैसा ,
कैसे कटे रात की दूरी ।
अगहन ठिठुर रहा , पाले ने
पियारायी हैं साँझ सिंदूरी ।
सत्याग्रह करती हैं , मन के
द्वारे अनागता इच्छाएँ ,
कब तक अँजुरी भर सपनों से
हम अपने अभाव दफनाएं ;
चढ़ी जिन्दगी के खाते में
सिर्फ अँधेरे की मजबूरी ।
अगहन ठिठुर रहा , पाले ने
पियरायी है साँझ सिंदूरी ।
लेकिन अब भी तो कोल्हू पर
निशि भर खूब जाग होती है ,
सच है , वहीं लोग जुड़ते हैं
जहाँ कि एक आग होती है ;
यही आग तो काम करती है
मानव से मानव की दूरी ।
अगहन ठिठुर रहा , पाले ने
पियरायी है साँझ सिंदूरी ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1960 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 57, 58
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