दिन कुम्हलाया
------------------
धूप ढल रही , दिन कुम्हलाया ,
सूरज का चेहरा अँधराया ।
धुँधलाती आँखों के आगे ,
उजियारे ने मुँह लटकाया ।
ऐसा गिरा - गिरा - सा जी है ,
जैसे - कोई पहाड़ उठाया ।
चुप्पी बैठी है चौराहे ,
सड़कों सूनापन तिर आया ।
रखा हुआ था जो कि ताख में ,
यादों ने वह दिया जलाया ।
अँधियारा इस तरह बढ़ रहा ,
जैसे - मँहगाई की काया ।
दूर - दूर तक नज़र न आती ,
उम्मीदों की उजली छाया ।
कितना कठिन समय आया है ,
अपनापन तक बना पराया ।
भावों में तो गरमाहट है ,
पर मौसम कितना ठंडाया ?
ऐसे में मन किसे पुकारे ,
पास न जब अपना ही साया ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
-------------------------------------------
( रचनाकाल - 1958 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 47
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
------------------
धूप ढल रही , दिन कुम्हलाया ,
सूरज का चेहरा अँधराया ।
धुँधलाती आँखों के आगे ,
उजियारे ने मुँह लटकाया ।
ऐसा गिरा - गिरा - सा जी है ,
जैसे - कोई पहाड़ उठाया ।
चुप्पी बैठी है चौराहे ,
सड़कों सूनापन तिर आया ।
रखा हुआ था जो कि ताख में ,
यादों ने वह दिया जलाया ।
अँधियारा इस तरह बढ़ रहा ,
जैसे - मँहगाई की काया ।
दूर - दूर तक नज़र न आती ,
उम्मीदों की उजली छाया ।
कितना कठिन समय आया है ,
अपनापन तक बना पराया ।
भावों में तो गरमाहट है ,
पर मौसम कितना ठंडाया ?
ऐसे में मन किसे पुकारे ,
पास न जब अपना ही साया ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
-------------------------------------------
( रचनाकाल - 1958 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 47
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
धन्यवाद मयंक जी |
ReplyDeleteधन्यवाद मयंक जी |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ,...
ReplyDeleteधन्यवाद प्रतिभा जी |
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDelete