चन्द्रमा दोपहर का
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दुपहर है
और अभी ताजा है गुलमोहर ,
किन्तु रात देख उठी एक आँख खोल कर ।
धूप अभी चिलक रही ,
किलक रहा दिवस अभी ,
असम्पृक्त हैं अब तक
भिन्न - भिन्न आकृतियाँ ,
पानी पर काँप रहीं
विहगों की आकृतियाँ ;
रंग - रूप सब सच है ,
रेखाएँ जीवित है ।
किरणों का महल
अभी हुआ नहीं खण्डहर ,
किन्तु एक चमगादड़ उड़ रहा कँगूरे पर ।
दुपहर है
और अभी ताज़ा है गुलमोहर ,
किन्तु रात देख उठी एक आँख खोल कर ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1963) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 61
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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दुपहर है
और अभी ताजा है गुलमोहर ,
किन्तु रात देख उठी एक आँख खोल कर ।
धूप अभी चिलक रही ,
किलक रहा दिवस अभी ,
असम्पृक्त हैं अब तक
भिन्न - भिन्न आकृतियाँ ,
पानी पर काँप रहीं
विहगों की आकृतियाँ ;
रंग - रूप सब सच है ,
रेखाएँ जीवित है ।
किरणों का महल
अभी हुआ नहीं खण्डहर ,
किन्तु एक चमगादड़ उड़ रहा कँगूरे पर ।
दुपहर है
और अभी ताज़ा है गुलमोहर ,
किन्तु रात देख उठी एक आँख खोल कर ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1963) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 61
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बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद ओंकार जी |
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