झील रात की
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साँझ - सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की ,
भरी हुई है अँधियारे से ।
नीली - नीली लहर नींद की उठतीं - गिरतीं ,
अवचेतन मन की कितनी ही नावें तिरतीं ;
कुण्ठाओं के कमल खिले है -
सपनों जैसे ।
साँझ -सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की ,
भरी हुई है अँधियारी से ।
इसी झील के तट पर पेड़ गगन है वट का ,
काला बादल चमगादड़ - सा उल्टा लटका ;
शंख - सीप नक्षत्र रेत में -
हैं पारे -से ।
साँझ - सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की
भरी हुई है अँधियारे से ।
नंगी नहा रहीं है प्रकाश की लाख बेटियाँ ,
तट पर बैठीं बाथरूम गायिका झिल्लियाँ ;
खग चीखे -
वह डूब रहा है चाँद ,
बचा लो
गहरे में से ।
साँझ - सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की
भरी हुई है अँधियारे से ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1965 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 60
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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साँझ - सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की ,
भरी हुई है अँधियारे से ।
नीली - नीली लहर नींद की उठतीं - गिरतीं ,
अवचेतन मन की कितनी ही नावें तिरतीं ;
कुण्ठाओं के कमल खिले है -
सपनों जैसे ।
साँझ -सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की ,
भरी हुई है अँधियारी से ।
इसी झील के तट पर पेड़ गगन है वट का ,
काला बादल चमगादड़ - सा उल्टा लटका ;
शंख - सीप नक्षत्र रेत में -
हैं पारे -से ।
साँझ - सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की
भरी हुई है अँधियारे से ।
नंगी नहा रहीं है प्रकाश की लाख बेटियाँ ,
तट पर बैठीं बाथरूम गायिका झिल्लियाँ ;
खग चीखे -
वह डूब रहा है चाँद ,
बचा लो
गहरे में से ।
साँझ - सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की
भरी हुई है अँधियारे से ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1965 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 60
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