तार - तार छाया की चुनरी
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मुरझे सब हरियाली - जैसे ,
बदले गए सूरज के तेवर ;
गरमी के काफ़िले आ गये , आज अतृप्ति धरे कन्धों पर ।
पानी पहुँचा है पाताल में ,
बची - खुची सब पूँजी लेकर ,
भरे हुए रेती से मुट्ठी
नदिया मात्र रह गयी खँडहर ;
इन लपटों में प्यास झुलसती , लिए जलन की रीती गागर ।
गरमी के काफ़िले आ गये , आज अतृप्ति धरे कन्धों पर ।
तार - तार छाया की चुनरी ,
हुई धूप के इस जंगल में ,
ज्वालामुखी बगूले उगले ,
खड़े सभी जैसे मरुथल में ;
कौन भला बाहर निकलेगा ,किरणों के हाथों में पत्थर ?
गरमी के काफिले आ गये ,आज अतृप्ति धरे कन्धों पर ।
कितना कठिन समय आया है ,
फूल भोगते है निर्वासन ,
पल - पल हुआ काटना मुश्किल ,
मनुज अभावों का विज्ञापन ;
सीझ रही है देह , ढलेगी कैसे त्रास - भरी यह दुपहर ?
गरमी के काफ़िले आ गये ,आज अतृप्ति धरे कन्धों पर ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1960 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 56
sksharmakavitaye.blogspot.in
shrikrishnasharma.wordpress.com
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मुरझे सब हरियाली - जैसे ,
बदले गए सूरज के तेवर ;
गरमी के काफ़िले आ गये , आज अतृप्ति धरे कन्धों पर ।
पानी पहुँचा है पाताल में ,
बची - खुची सब पूँजी लेकर ,
भरे हुए रेती से मुट्ठी
नदिया मात्र रह गयी खँडहर ;
इन लपटों में प्यास झुलसती , लिए जलन की रीती गागर ।
गरमी के काफ़िले आ गये , आज अतृप्ति धरे कन्धों पर ।
तार - तार छाया की चुनरी ,
हुई धूप के इस जंगल में ,
ज्वालामुखी बगूले उगले ,
खड़े सभी जैसे मरुथल में ;
कौन भला बाहर निकलेगा ,किरणों के हाथों में पत्थर ?
गरमी के काफिले आ गये ,आज अतृप्ति धरे कन्धों पर ।
कितना कठिन समय आया है ,
फूल भोगते है निर्वासन ,
पल - पल हुआ काटना मुश्किल ,
मनुज अभावों का विज्ञापन ;
सीझ रही है देह , ढलेगी कैसे त्रास - भरी यह दुपहर ?
गरमी के काफ़िले आ गये ,आज अतृप्ति धरे कन्धों पर ।
- श्रीकृष्ण शर्मा
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( रचनाकाल - 1960 ) , पुस्तक - '' फागुन के हस्ताक्षर '' , पृष्ठ - 56
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